अपठित - पद्यांश 1
निर्मम कुम्हार को थापी से
कितने रूपों में कुटी-पिटी,
हर बार बिखेरी गई किंतु
मिट्टी फिर भी तो नहीं मिटी।
आशा में निश्छल पल जाए.
छलना में पड़कर छल जाए,
सूरज दमके तो तप जाए,
रजनी ठुमके तो ढल जाए,
यों तो बच्चों की गुड़िया-सी
भोली मिट्टी की हस्ती क्या
आँधी आए तो उड़ जाए,
पानी बरसे तो गल जाए,
फसलें उगतीं, फसलें कटतीं
लेकिन धरती चिर उर्वर है।
सौ बार बने, सौ बार मिटे
लेकिन मिट्टी अविनश्वर है।
मिट्टी गल जाती पर उसका विश्वास अमर हो जाता है।
प्रश्न-
( क) आशय स्पष्ट कीजिए-'मिट्टी फिर भी तो नहीं मिटी'। (1)
(ख) मिट्टी को गुड़िया-सी भोली क्यों बताया गया है? (1)
(ग) मिट्टी बार-बार बनने, सँवरने और मिटने पर भी कैसे बनी रहती है? (1)
(घ) मिट्टी के बारे में कवि के दो कथन हैं-'मिट्टी की हस्ती क्या' और 'मिट्टी अविनश्वर है।' इनमें से किसी एक पर अपना मत लिखिए। (1)
(ङ) इस कविता में निहित मूल भाव को स्पष्ट कीजिए। (1)
उत्तर-
(क) आशय यह है कि मिट्टी की सहनशीलता अपार है। वह बार-बार कुटने-पीटने छनने, बिखराए जाने, सुखाने, गीला करने के बाद भी अपना अस्तित्व बचाए रख सकी। इन विपरीत परिस्थितियों में भी मिट्टी को कोई मिटा नहीं पाया।
(ख) मिट्टी को बच्चों की गुड़िया-सी भोली और निर्बल इसलिए बताया गया है, क्योंकि जिस प्रकार गुड़िया किसी भी बच्चे का खिलौना बनकर किसी स्थान की होकर नहीं रह पाती है, उसी प्रकार मिट्टी भी हवा के साथ उड़ जाती है और पानी के साथ बहकर अन्यत्र चली जाती है।
(ग) मिट्टी बार-बार बनने, सँवरने और मिटने पर भी अविनाशी बनी रहती है। वह कभी नष्ट नहीं होती। उसका रूप-रंग भले बदल जाए, पर वह नष्ट नहीं होती।
(घ) मिट्टी अविनश्वर है। वह कुम्हार की थापी से बार-बार कुटती-पिटती रही। उसे तोड़ा-फोड़ा गया। उसे यहाँ-वहाँ फेंका गया। पानी उसे बहा ले गया और पवन उसे अपने संग उड़ा ले गया। मिट्टी का बार-बार रूप-स्वरूप एवं स्थान बदलने पर भी मिट्टी का अस्तित्व न मिट सका।
(ङ) कविता का मूल भाव यह है कि मिट्टी अविनाशी है। उसे नष्ट नहीं किया जा सकता। वह अनुकूल या विपरीत परिस्थितियों में अपना रूप-रंग, आकार बदलने पर भी अपने मूलरूप में बनी रहती है।
अपठित - पद्यांश 2
गीत मेरे, देहरी के दीप-सा बन।
एक दुनिया है हृदय में, मानता हूँ,
वह घिरी तम से, इसे भी जानता हूँ,
छा रहा है किन्तु बाहर भी तिमिर घन;
गीत मेरे, देहरी के दीप-सा बन।
प्राण की लौ से तुझे जिस काल बारूँ,
और अपने कंठ पर तुझको सँवारूँ,
कह उठे संसार आया ज्योति का क्षण;
गीत मेरे, देहरी के दीप-सा बन।
दूर कर मुझमें भरी तू कालिमा जब,
फैल जाए विश्व में भी लालिमा तब
जानता सीमा नहीं है अग्नि का कण;
गीत मेरे, देहरी के दीप-सा बन।
जग विभामय तो न काली रात मेरी,
मैं विभामय तो नहीं जगती अँधेरी,
यह रहे विश्वास मेरा यह रहे प्रण;
गीत मेरे, देहरी के दीप-सा बन।
प्रश्न-
(क) 'देहरी के दीप' से क्या आशय है?
(ख) कवि के हृदय की दुनिया कैसी है? क्यों?
(ग) विश्व में लालिमा कब-कैसे फैलेगी?
(घ) स्वयं प्रकाशित होने का संसार पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
(ङ) आशय स्पष्ट कीजिए : -
जानता सीमा नहीं है अग्नि का कण
उत्तर-
(क) 'देहरी के दीप' से आशय है, जिस प्रकार देहरी (घर की चौखट) पर रखा दीप घर के अंदर और बाहर दोनों ओर उजाला फैलाता है, उसी प्रकार कवि अपने गीतों को देहरी का बनाना चाहता है।
(ख) कवि के हृदय की दुनिया अंधकारमय है। कवि ऐसा मानता है कि उसके हृदय रूपी दुनिया में अज्ञानता का अँधेरा छाया है।
(ग) जब कवि देहरी के दीप के समान अंदर-बाहर आलोकित करने वाले गीतों को गाएगा और दुनिया कह उठेगी कि इन गीतों में ज्ञान की रोशनी है तथा उनके मन का अंधकार मिटेगा, तब विश्व में लालिमा फैलेगी।
(घ) स्वयं प्रकाशित होने पर व्यक्ति के अंदर का अज्ञानता रूपी अंधकार नष्ट हो जाता है। वह अज्ञानता का शिकार नहीं बन पाता है।
(ङ) जानता सीमा नहीं है अग्नि का कण'-आशय यह है कि ज्ञान रूपी अग्नि का कण सीमा रहित होता है। वह असीमित क्षेत्र को अपने प्रकाश से प्रकाशमय बनाता है।
अपठित - पद्यांश 3
“धर्मराज, यह भूमि किसी की नहीं क्रीत है दासी,
है जन्मना समान परस्पर इसके सभी निवासी ।
है सबका अधिकार मृत्तिका पोषक-रस पीने का,
विविध अभावों से अशंक होकर जग में जीने का ।
सबको मुक्त प्रकाश चाहिए, सबको मुक्त समीरण
बाधा-रहित विकास, मुक्त आशंकाओं से जीवन ।
लेकिन, विघ्न अनेक अभी इस पथ में पड़े हुए हैं,
मानवता की राह रोककर पर्वत अड़े हुए हैं।
न्यायोचित सुख सुलभ नहीं जब तक मानव-मानव को,
चैन कहाँ धरती पर तब तक, शांति कहाँ इस भव को ?
जब तक मनुज-मनुज का यह सुख-भाग नहीं सम होगा,
शमित न होगा कोलाहल, संघर्ष नहीं कम होगा।
था पथ सहज अतीव, सम्मिलित हो समग्र सुख पाना,
केवल अपने लिए नहीं, कोई सुख-भाग चुराना।
प्रश्न -
(क) 'यह धरती किसी की खरीदी हुई दासी नहीं है।' इससे कवि का क्या आशय है?
(ख) इस धरती पर लोगों को कौन-कौन से अधिकार प्राप्त हैं?
(ग) 'सबको मुक्त प्रकाश चाहिए, सबको मुक्त समीरण'- इसका भाव स्पष्ट कीजिए।
(घ) आज मानव समाज में किस प्रकार का संघर्ष चल रहा है? उसका कारण क्या है?
(ङ) मनुष्य क्या चाहता है?
उत्तर-
(क) 'यह धरती किसी की खरीदी हुई दासी नहीं है।' इससे कवि का आशय यह है कि यह पृथ्वी किसी एक की नहीं है। इस पर सभी मनुष्यों का जन्मजात अधिकार है। सभी इसके निवासी हैं।
(ख) इस धरती पर सभी को निम्नलिखित अधिकार प्राप्त हैं :
(i) इस धरती से पोषण पाने का ।
(ii) इस धरती पर निडर रहकर जीने का।
(iii) सभी को समान रूप से हवा और पानी पाने का।
(iv) आशंकामुक्त एवं बाधारहित जीवन जीने का ।
(ग) भाव यह है कि धरती पर सभी को जीने का अधिकार है। इसके लिए हर मनुष्य को समान रूप से हवा और प्रकाश मिलना चाहिए। उसे मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित नहीं किया जाना चाहिए।
(घ) आज मानव-समाज में मूलभूत सुविधाओं को पाने, सुख-शांति से जीने, विषमता को कम करने के लिए संघर्ष हो रहा है। एक ओर व्यक्ति सुख-सुविधाओं और भोग-विलास में आकंठ डूबा हुआ है और दूसरी ओर लोग भूखों मरने को विवश हैं।
(ङ) मनुष्य इस धरती पर केवल अपने लिए ही सुख चाहता है। इसका कारण यह है कि मनुष्य स्वार्थी हो गया है। अपने स्वार्थ में डूबने के कारण ही उसे दूसरों की लेशमात्र चिंता नहीं रह गई है। वह दूसरों का सुख भी हड़प लेना चाहता है।
अपठित - पद्यांश 4
सर ! पहचाना मुझे ?'
बारिश में भीगता आया कोई
कपड़े कीचड़-सने और बालों में पानी
बैठा ! छन-भर सुस्ताया। बोला, नभ की ओर देख
'गंगा मैया पाहुन बनकर आई थीं,
झोंपड़ी में रहकर लौट गईं।
नैहर आई बेटी की भाँति
चार दीवारों में कुदकती-फुदकती रहीं
खाली हाथ वापस कैसे जातीं!
घरवाली तो बच गई
दीवारें ढहीं, चूल्हा बुझा' बरतन-भाँड़े
जो भी था सब चला गया।
प्रसाद रूप में बचा है नैनों में थोड़ा खारा पानी
पत्नी को साथ ले, सर, अब लड़ रहा हूँ
ढही दीवार खड़ी कर रहा हूँ
कादा-कीचड़ निकाल फेंक रहा हूँ,
मेरा हाथ ज़ेब की ओर जाते देख
वह उठा, बोला – 'सर, पैसे नहीं चाहिए।
ज़रा अकेलापन महसूस हुआ तो चला आया
घर गृहस्थी चौपट हो गई पर
रीढ़ की हड्डी मज़बूत है, सर!
पीठ पर हाथ थपकी देकर
आशीर्वाद दीजिए -
लड़ते रहो।'
प्रश्न-
(क) बाढ़ की तुलना मायके आई हुई बेटी से क्यों की गई है?
(ख) बाढ़ का क्या प्रभाव पड़ा?
(ग) 'सर' का हाथ जेब की ओर क्यों गया होगा?
(घ) आगंतुक सर के घर क्यों आया था?
(ङ) कैसे कह सकते हैं कि आगंतुक स्वाभिमानी और संघर्षशील व्यक्ति है?
उत्तर-
(क) बाढ़ की तुलना मायके आई बेटी से इसलिए की गई है, क्योंकि जिस प्रकार ब्याह के बाद जब बेटी अपने मायके आती है तो उसे स्वतंत्र होकर घूमने-फिरने, उछलने-कूदने एवं मस्ती करने की छूट-सी मिल जाती है, उसी प्रकार बाढ़ भी जब नदी-तालाब की सीमा छोड़कर गाँव में आती है तो खूब विनाश-लीला दिखाती है तथा यादें छोड़ जाती है।
(ख) बाढ़ का प्रभाव यह हुआ कि मकान की दीवारें ढह गईं। पानी भरने के कारण चूल्हा न जल सका और खाना न बन सका। घर में रखा कुछ सामान नष्ट हो गया तथा कुछ बाढ़ में बह गया।
(ग) 'सर' का हाथ ज़ेब की ओर इसलिए गया होगा, ताकि बाढ़ से पीड़ित व्यक्ति की जितनी क्षति हुई थी, उसकी क्षतिपूर्ति के लिए कुछ रुपये दे सकें, पर उस पीड़ित स्वाभिमानी व्यक्ति ने रुपये लेने से मना कर दिया।
(घ) आगंतुक (बाढ़ पीड़ित व्यक्ति) 'सर' के पास इसलिए गया ताकि
(i) वह अपने आप को अकेलेपन से मुक्ति दिला सके।
(ii) वह बाढ़ की विपदा सहन करने की शक्ति पा सके।
(ङ) काव्याश से ज्ञात होता है कि बाढ़ पीड़ित व्यक्ति 'सर' की आर्थिक सहायता नहीं स्वीकारता तथा अपनी रीढ़ की हड्डी मज़बूत बताता है। वह संघर्ष करने का आशीर्वाद मात्र चाहता है। इससे हम कह सकते हैं कि आगंतुक स्वाभिमानी और संघर्षशील व्यक्ति है।
अपठित - पद्यांश 5
तरुणाई है नाम सिधु की उठती लहरों के गर्जन का,
चट्टानों से टक्कर लेना लक्ष्य बने जिनके जीवन का ।
विफल प्रयासों से भी दूना वेग भुजाओं में भर जाता,
जोड़ा करता जिनकी गति से नव उत्साह निरंतर नाता।
पर्वत के विशाल शिखरों-सा यौवन उसका ही है अक्षय,
जिसके चरणों पर सागर के होते अनगिन ज्वार सदा लय ।
अचल खड़े रहते जो ऊँचा, शीश उठाए तूफानों में,
सहनशीलता, दृढ़ता हँसती, जिनके यौवन के प्राणों में।
वही पंथ-बाधा को तोड़े बहते हैं जैसे हों निर्झर,
प्रगति नाम को सार्थक करता यौवन दुर्गमता पर चलकर ।
आज देश की भावी आशा बनी तुम्हारी ही तरुणाई
नए जन्म की श्वास तुम्हारे अंदर जगकर है लहराई।
प्रश्न-
(क) यौवन की तुलना किससे की गई है और क्यों?
(ख) काव्यांश के आधार पर युवकों की क्षमताओं पर प्रकाश डालिए।
(ग) यौवन की सार्थकता कब मानी गई है?
(घ) पर्वतों और युवकों में साम्य दर्शाइए ।
(ङ) काव्यांश का केंद्रीय भाव लिखिए।
उत्तर-
(क) यौवन की तुलना पर्वत की ऊँची-ऊँची विशाल चोटियों से की गई है, क्योंकि जिस प्रकार पर्वत को विशाल चोटियाँ कभी नष्ट नहीं होतीं, उसी प्रकार उत्साही नवयुवकों का यौवन सदैव अक्षय बना रहता है।
(ख) काव्यांश से कों की निम्नलिखित क्षमताओं का ज्ञान होता है
(i) नवयुवक कठिन-से-कठिन काम को करना अपने जीवन का लक्ष्य समझते हैं।
(ii) वे असफलता से निराश नहीं होते हैं।
(iii) वे सहनशील और दृढ़ बने रहते हैं।
(iv) वे हमेशा जोश से भरे होते हैं।
(ग) यौवन की सार्थकता तब मानी गई है, जब नवयुवक कठिनाइयों से मुँह न मोड़ें, उनसे संघर्ष करें और विजय प्राप्त करते हुए उन्नति के पथ पर निरंतर अग्रसर रहें।
(घ) पर्वतों और युवकों में साम्यता यह है कि
(i) पर्वत के विशाल शिखरों के समान ही नवयुवकों का यौवन कभी नष्ट नहीं होता है।
(ii) जिस प्रकार पर्वत के चरणों में सागर के अनगिनत ज्वार टकराकर खो जाते हैं और पर्वत अचल रह जाते हैं, उसी प्रकार नवयुवक बाधाओं से विचलित नहीं होते हैं और दृढ़ बने रहते हैं।
(ङ) काव्यांश का केंद्रीय भाव यह है कि नवयुवकों में अदम्य दृढ़ता, सहनशीलता और उत्साह होता है, जिसके बल पर बड़ी-बड़ी विपत्तियों का सामना करते हैं और विजय पाते हैं। विपत्तियों पर विजयी होकर आगे बढ़ने में ही उनके यौवन की सार्थकता है। देश को ऐसे नवयुवकों से बड़ी आशाएँ हैं।
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