अपठित गद्यांश - अभ्यास 1
आज से लगभग छह सौ साल पूर्व संत कबीर ने सांप्रदायिकता की जिस समस्या की ओर ध्यान दिलाया था. वह आज भी प्रसुप्त ज्वालामुखी की भाँति भयंकर बनकर देश के वातावरण को विदग्ध करती रहती है। देश का यह बड़ा दुर्भाग्य है कि यहाँ जाति, धर्म, भाषागत, ईर्ष्या, द्वेष, बैर-विरोध की भावना समय-असमय भयंकर ज्वालामुखी के रूप में भड़क उठती है। दस-बीस हताहत होते हैं, लाखों-करोड़ों की संपत्ति नष्ट हो जाती है। भय, त्रास और अशांति का प्रकोप होता है। विकास की गति अवरुद्ध हो जाती है।
कबीर हिंदू-मुसलमान में, जाति-जाति में शारीरिक दृष्टि से कोई भेद नहीं मानते। भेद केवल विचारों और भावों का है। इन विचारों और भावों के भेद को बल, धार्मिक कट्टरता और सांप्रदायिकता से मिलता है। हृदय की चरमानुभूति की दशा में राम और रहीम में कोई अंतर नहीं। अंतर केवल उन माध्यमों में है, जिनके द्वारा वहाँ तक पहुँचने का प्रयत्न किया जाता है। इसीलिए कबीर साहब ने उन माध्यमों- पूजा-नमाज़, व्रत, रोजा आदि के दिखावे का विरोध किया। समाज में एकरूपता तभी संभव है जबकि जाति, वर्ण, वर्ग, भेद न्यून-से-न्यून हों। संतों ने मंदिर-मस्ज़िद, जाति-पाँति के भेद में विश्वास नहीं रखा। सदाचार ही संतों के लिए महत्वपूर्ण है। कबीर ने समाज में व्याप्त बाह्याडंबरों का कड़ा विरोध किया और समाज में एकता, समानता तथा धर्म-निरपेक्षता की भावनाओं का प्रचार-प्रसार किया।
प्रश्न-
( क ) गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए | (1)
(ख) क्या कारण है कि कबीर छह सौ साल बाद भी प्रासंगिक लगते हैं? (2)
(ग) किस समस्या को ज्वालामुखी कहा गया है और क्यों? (2)
(घ) समाज में ज्वालामुखी भड़कने के क्या दुष्परिणाम होते हैं? (2)
(ङ) मनुष्य मनुष्य में भेदभाव के विचार कैसे बलशाली बनते हैं? (2)
(च) कबीर ने किन माध्यमों का विरोध किया और क्यों? (2)
(छ) समाज में एकरूपता कैसे लाई जा सकती है? (1)
(ज) 'सांप्रदायिकता' शब्द से एक उपसर्ग और एक प्रत्यय चुनिए। (1)
(झ) 'कबीर ने समाज में व्याप्त बाह्याडंबरों का कड़ा विरोध किया।' इस वाक्य को मिश्र वाक्य में बदलकर लिखिए। (1)
(ञ) गद्यांश में से शब्दों के उस जोड़े (शब्द-युग्म) को चुनकर लिखिए, जिसके दोनों शब्द परस्पर विलोम हों। (1)
उत्तर-
(क) शीर्षक: सांप्रदायिकता- एक प्रसुप्त ज्वालामुखी ।
(ख) छह सौ साल बाद भी कबीर के प्रासंगिक लगने का कारण यह है कि कबीर ने छह सौ साल पहले ही समाज में व्याप्त जिस सांप्रदायिकता की समस्या की ओर ध्यान खींचा था, वही सांप्रदायिकता आज भी अपना भयंकर रूप दिखाकर देश के सद्भाव को खराब कर जाती है।
(ग) जाति, धर्म, भाषागत ईर्ष्या, द्वेष, बैर आदि के कारण होने वाले दंगों तथा लड़ाई-झगड़े को ज्वालामुखी कहा गया है, क्योंकि सांप्रदायिकता किसी सोए हुए भयंकर ज्वालामुखी की तरह समय-असमय भड़क उठती है। और हमारी एकता को तार-तार कर देती है।
(घ) समाज में ज्वालामुखी भड़कने के दुष्परिणाम निम्नलिखित हैं : -
(i) समाज में अनेक लोग असमय मारे जाते हैं।
(ii) लाखों-करोड़ों की संपत्ति नष्ट होती है।
(iii) विकास की गति रुक जाती है।
(iv) भय, कष्ट और अशांति का वातावरण बन जाता है।
(ङ) हमारा समाज भाषा, जाति, धर्म, क्षेत्रीयता आदि के आधार पर बँटा हुआ है। इसके अलावा समाज अमीर-गरीब, ऊँच-नीच वर्गों में भी बँटा हुआ है, जिससे आपसी समरसता की जगह ईर्ष्या, द्वेष, बैर-विरोध की भावना भीतर ही भीतर सुलगती रहती है। ये दुर्गुण मनुष्य में भेदभाव के विचार बलशाली बनाते हैं।
(च) कबीर ने राम रहीम तक पहुँचने के लिए प्रयुक्त माध्यमों-पूजा, नमाज़, व्रत, रोज़ा आदि का विरोध किया है। यह विरोध इसलिए किया जाता है, क्योंकि इससे समाज वर्गों एवं संप्रदायों में बँटता है, जिससे सामाजिक एकता खंडित होती है और समाज में एकरूपता नहीं आ पाती है।
(छ) समाज में एकरूपता लाने के लिए सबसे पहले आवश्यक है कि भाषा, जाति, धर्म जैसे कारक प्रश्न जो भेदभाव पैदा करते हैं, उनका सही रूप लोगों के सामने प्रस्तुत किया जाए, ताकि ये एकता बढ़ाने का साधन बन सकें। इसके अलावा धार्मिक कट्टरता, सांप्रदायिकता को हतोत्साहित करने से एकरूपता लाई जा सकती है।
(ज) सांप्रदायिकता : उपसर्ग-सम्, प्रत्यय-इक, ता।
(झ) कबीर ने उन बाह्याडंबरों का कड़ा विरोध किया, जो समाज में व्याप्त थे।
(ञ) समय-असमय।
अपठित गद्यांश - अभ्यास 2
जर्मनी के सुप्रसिद्ध विचारक नीत्शे ने, जो विवेकानंद का समकालीन था, घोषणा की कि 'ईश्वर मर चुका है।' नीत्शे के प्रभाव में यह बात चल पड़ी कि अब लोगों को ईश्वर में दिलचस्पी नहीं रही। मानवीय प्रवृत्तियों को संचालित करने में विज्ञान और बौद्धिकता निर्णायक भूमिका निभाते हैं-यह स्वामी विवेकानंद को स्वीकार नहीं था। उन्होंने धर्म को बिलकुल नया अर्थ दिया। स्वामी जी ने माना कि ईश्वर की सेवा का वास्तविक अर्थ गरीबों की सेवा है। उन्होंने साधुओं-पंडितों, मंदिरों-मस्जिदों, गिरजाघरों-गोंपाओं के इस परंपरागत सोच को नकार दिया कि धार्मिक जीवन का उद्देश्य-संन्यास के उच्चतर मूल्यों को पाना या मोक्ष प्राप्ति की कामना है। उनका कहना था कि ईश्वर का निवास निर्धन-दरिद्र-असहाय लोगों में होता है, क्योंकि वे 'दरिद्र नारायण' हैं। 'दरिद्र-नारायण' शब्द ने सभी आस्थावान स्त्री पुरुषों में कर्तव्य-भावना जगाई कि ईश्वर की सेवा का अर्थ दीन-हीन प्राणियों की सेवा है। अन्य किसी भी संत-महात्मा की तुलना में स्वामी विवेकानंद ने इस बात पर ज्यादा बल दिया कि प्रत्येक धर्म गरीबों की सेवा करे और समाज के पिछड़े लोगों को अज्ञान, दरिद्रता और रोगों से मुक्त करने के उपाय करे। ऐसा करने में स्त्री-पुरुष, जाति-संप्रदाय, मत-मतांतर या पेशे-व्यवसाय से भेदभाव न करे। परस्पर वैमनस्य या शत्रुता का भाव मिटाने के लिए हमें घृणा का परित्याग करना होगा और सबके प्रति प्रेम और सहानुभूति का भाव जगाना होगा।
प्रश्न-
(क) नीत्शे कौन था? उसने क्या घोषणा की थी ? (2)
(ख) नीत्शे की घोषणा के पीछे क्या सोच थी? (1)
(ग) धर्म के बारे में स्वामी विवेकानंद ने क्या विचार किया? इसका क्या आशय था? (2)
(घ) पारंपरिक विचारों के अनुसार धार्मिक जीवन का उद्देश्य क्या माना गया था? (1)
(ङ) 'दरिद्र-नारायण' से क्या आशय है? इस शब्द से लोगों में क्या भावना जाग्रत हुई? (2)
(च) स्वामी विवेकानंद ने किस बात पर बल दिया और क्यों? (2)
(छ) आपसी भेदभाव मिटाने के लिए क्या किया जाना चाहिए? (2)
(ज) उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए। (1)
(झ) उपसर्ग और प्रत्यय अलग कीजिए- संचालित अथवा निर्धनता। (1)
(ञ) सरल वाक्य में बदलिए - (1)
स्वामी जी ने माना कि ईश्वर सेवा का वास्तविक अर्थ गरीबों की सेवा है।
उत्तर-
(क) नीत्शे जर्मनी का सुप्रसिद्ध विचारक एवं नास्तिक था। वह विवेकानंद का समकालीन था। उसने ईश्वर के संबंध में यह घोषणा की थी कि ईश्वर मर चुका है। अपनी नास्तिकता कारण उसने लोगों को ईश्वर से विमुख करने के लिए ऐसी बात कही। वह किसी सीमा तक इसमें सफल भी रहा।
(ख) नीत्शे ने जो घोषणा की थी उसके पीछे सोच यह थी कि मानवीय प्रवृत्तियों को संचालित करने में ईश्वर की कोई भूमिका नहीं है। इनको संचालित करने में विज्ञान और बौद्धिकता निर्णायक भूमिका निभाते हैं।
(ग) धर्म के बारे में स्वामी विवेकानंद का विचार यह था कि ईश्वर की सेवा का वास्तविक अर्थ गरीबों की सेवा है। गरीबों की सेवा ही ईश्वर की सेवा है। इसका आशय यह था कि साधुओं-पंडितों, मंदिरों-मस्जिदों, गिरिजाघरों-गोपाओं की परंपरागत सोच को नकारकर गरीबों की सेवा को महत्त्व देना चाहिए।
(घ) पारंपरिक विचारों के अनुसार धार्मिक जीवन का उद्देश्य माना गया था- संन्यास के उच्चतर मूल्यों को पाना या मोक्ष प्राप्ति की कामना ।
(ङ) 'दरिद्र नारायण' से आशय है-दरिद्र, दीन-दुखी, असहाय, निर्बल, अशक्त और गरीबों की रक्षा करने वाले भगवान। इस शब्द से लोगों में गरीबों के प्रति सेवा भावना विकसित हुई। लोगों की आस्था गरीबों में बढ़ी और वे गरीबों की सेवा करके 'नर सेवा नारायण सेवा' को चरितार्थ करने लगे।
(च) स्वामी विवेकानंद ने इस बात पर बल दिया कि प्रत्येक धर्म गरीबों की सेवा करे तथा गरीबों की सेवा को अपना मुख्य अंश बनाए और समाज के पिछड़े लोगों को अज्ञान, दरिद्रता और रोगों से मुक्त करने के उपाय करे, क्योंकि गरीबों की सेवा ही सच्चा धर्म और ईश्वर की सेवा है।
(छ) आपसी भेदभाव मिटाने के लिए स्त्री-पुरुष, जाति-संप्रदाय, मत-मतांतर या पेशे-व्यवसाय के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करना चाहिए। इसके अलावा हमें आपसी घृणा, वैमनस्य तथा शत्रुता का भाव त्यागकर सभी के साथ समानता का व्यवहार करना चाहिए।
(ज) शीर्षक: 'सच्चा धर्म' अथवा 'नर सेवा नारायण सेवा'। 'इत'।
(झ) संचालित : उपसर्ग - 'सम्', प्रत्यय 'इत'।
निर्धनता उपसर्ग – 'निर्', प्रत्यय 'ता'।
(ञ) सरल वाक्य : स्वामी जी ने ईश्वर सेवा का वास्तविक अर्थ गरीबों की सेवा माना।
अपठित गद्यांश - अभ्यास 3
साधारणतः सत्य का अर्थ सच बोलना मात्र ही समझा जाता है, परंतु गांधी जी ने व्यापक अर्थ में 'सत्य' शब्द का प्रयोग किया है। विचार में, वाणी में और आचार में उसका होना ही सत्य माना है। उनके विचार में जो सत्य को इस विशाल अर्थ में समझ ले उसके लिए जगत् में और कुछ जानना शेष नहीं रहता। परंतु इस सत्य को पाया कैसे जाए? गांधी जी ने इस संबंध में अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किए हैं-एक के लिए जो सत्य है, वह दूसरे के लिए असत्य हो सकता है। इसमें घबराने की बात नहीं है। जहाँ शुद्ध प्रयत्न, है वहाँ भिन्न जान पड़ने वाले सब सत्य एक ही पेड़ के असंख्य भिन्न दिखाई देने वाले पत्तों के समान हैं। परमेश्वर ही क्या हर आदमी को भिन्न दिखाई। नहीं देता? फिर भी हम जानते हैं कि वह एक ही है। पर सत्य नाम ही परमेश्वर का है, अतः जिसे जो सत्य लगे तदनुसार वह बरते तो उसमें दोष नहीं। इतना ही नहीं, बल्कि वही कर्तव्य है। फिर उसमें भूल होगी भी तो सुधर जाएगी, क्योंकि सत्य की खोज के साथ तपश्चर्या होती है अर्थात् आत्मकष्ट सहन की बात होती है, उसके पीछे मर मिटना होता है, अतः उसमें स्वार्थ की तो गंध तक भी नहीं होती। ऐसी निःस्वार्थ खोज में लगा हुआ आज तक कोई अंत-पर्यंत गलत रास्ते पर नहीं गया। भटकते ही वह ठोकर खाता है और सीधे रास्ते पर चलने लगता है।
ऐसे ही अहिंसा वह स्थूल वस्तु नहीं है जो आज हमारी दृष्टि के सामने है। किसी को न मारना, इतना तो है ही। कुविचार मात्र हिंसा है। उतावली हिंसा है। मिथ्या भाषण हिंसा है। द्वेष हिंसा है। किसी का बुरा चाहना हिंसा है। जगत् के लिए जो आवश्यक वस्तु है, उस पर कब्ज़ा रखना भी हिंसा है।
इतना हमें समझ लेना चाहिए कि अहिंसा के बिना सत्य की खोज असंभव है। अहिंसा और सत्य ऐसे ओत-प्रोत हैं जैसे सिक्के के दोनों रुख। इसमें किसे उलटा कहें किसे सीधा। फिर भी अहिंसा को साधन और सत्य को साध्य मानना चाहिए। साधन अपने हाथ की बात है। हमारे मार्ग में चाहे जो भी संकट आए, चाहे जितनी हार होती दिखाई दे- हमें विश्वास रखना चाहिए कि जो सत्य है वही एक परमेश्वर है। जिसके साक्षात्कार का एक ही मार्ग है और एक ही साधन है-वह है अहिंसा, उसे कभी न छोड़ेंगे।
प्रश्न-
(क) गांधी जी के अनुसार सत्य का स्वरूप स्पष्ट कीजिए। (2)
(ख) “जो एक के लिए सत्य है, वह दूसरे के लिए असत्य हो सकता है।" इस बात को गांधी जी ने कैसे समझाया है? (2)
(ग) गांधी जी ने किन बातों एवं व्यवहारों को हिंसा माना है? (2)
(घ) सत्य की खोज में लगा हुआ व्यक्ति गलत रास्ते पर क्यों नहीं जा सकता? (2)
(ङ) आशय स्पष्ट कीजिए : “ अहिंसा और सत्य ऐसे ओत-प्रोत हैं जैसे सिक्के के दोनों रुख।" (2)
(च) अहिंसा सत्य की प्राप्ति में साधन कैसे है? (2)
(छ) उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक बताइए। (1)
(ज) “उतावली हिंसा है। मिथ्या भाषण हिंसा है। द्वेष हिंसा है। " उपर्युक्त वाक्यों को सरल वाक्य में बदलिए । (1)
(झ) उपसर्ग और प्रत्यय अलग कीजिए - नि:स्वार्थ, व्यापक। (1)
उत्तर-
(क) गांधी जी के अनुसार सत्य का स्वरूप बहुत व्यापक है। वे वाणी में विचार में और आचार में उसका होना ही सत्य मानते हैं। जो व्यक्ति सत्य के इस विशाल अर्थ को समझ लेता है, वह संसार में सब कुछ जान जाता है।
(ख) इस बात को समझाते हुए गांधी जी ने कहा है कि जहाँ शुद्ध प्रयत्न है, वहाँ अलग-अलग जान पड़ने वाले सभी सत्य एक ही पेड़ के असंख्य भिन्न दिखने वाले पत्तों के समान हैं। परमेश्वर भी तो हर आदमी को भिन्न दिखाई देता है।
(ग) सामान्यतया किसी को न मारना ही अहिंसा है, परंतु गांधी जी के अनुसार कुविचार मात्र हिंसा है। उतावली हिंसा है। मिथ्या भाषण और दूद्वेष भाव रखना हिंसा है। किसी का बुरा चाहना और जगत् के लिए आवश्यक वस्तु पर कब्जा जमाना भी हिंसा है।
(घ) सत्य की खोज में लगा व्यक्ति गलत रास्ते पर इसलिए नहीं जा सकता, क्योंकि वह निःस्वार्थ भाव से काम करता है। वह आत्मकष्ट सहता हुआ पथ पर जाता है। जैसे ही वह रास्ते से भटकता है, ठोकर लगते ही सीधे रास्ते पर चलने लगता है।
(ङ) आशय यह है कि सत्य और अहिंसा एक-दूसरे के पूरक तथा परस्पर अभिन्न रूप से जुड़े हैं। दोनों इतने ओत-प्रोत हैं कि किसी को न उल्टा कहा जा सकता है और न सीधा। दोनों एक-दूसरे पर निर्भर हैं।
(च) सत्य की प्राप्ति मानव जीवन का लक्ष्य है, जिसे अहिंसा के मार्ग पर चलकर पाया जा सकता है। अहिंसा के बिना सत्य की प्राप्ति असंभव है। अहिंसा और सत्य एक-दूसरे के पूरक हैं। सत्य की प्राप्ति में अहिंसा वह साधन हैं, जो मनुष्य के अपने हाथ में होती है। इस प्रकार यह सत्य प्राप्ति का साधन है।
(छ) शीर्षक: सत्य और अहिंसा।
(ज) उतावली, मिथ्या भाषण और द्वेष भाव हिंसा है।
(झ) निःस्वार्थ : उपसर्ग-निः।
व्यापक : प्रत्यय-अक।
अपठित गद्यांश - अभ्यास 4
विश्व के प्रायः सभी धर्मों में अहिंसा के महत्व पर बहुत प्रकाश डाला गया है। भारत के सनातन हिंदू धर्म और जैन धर्म के सभी ग्रंथों में अहिंसा की विशेष प्रशंसा की गई है। 'अष्टांगयोग' के प्रवर्तक पतंजलि ऋषि ने योग के आठों अंगों में प्रथम अंग 'यम' के अंतर्गत 'अहिंसा' को प्रथम स्थान दिया है। इसी प्रकार 'गीता' में भी अहिंसा के महत्व पर जगह-जगह प्रकाश डाला गया है। भगवान महावीर ने अपनी शिक्षाओं का मूलाधार अहिंसा को बताते हुए 'जियो और जीने दो' की बात कही है। अहिंसा मात्र हिंसा का अभाव ही नहीं, अपितु किसी भी जीव का संकल्पपूर्वक वध नहीं करना और किसी जीव या प्राणी को अकारण दुख नहीं पहुँचाना है। ऐसी जीवन शैली अपनाने का नाम ही अहिंसात्मक जीवन-शैली है।
अकारण या बात-बात में क्रोध आ जाना हिंसा की प्रवृत्ति का एक प्रारंभिक रूप है। क्रोध मनुष्य को अंधा बना देता है, वह उसकी बुद्धि का नाश कर उसे अनुचित कार्य करने को प्रेरित करता है। परिणामतः दूसरों को दुख और पीड़ा पहुँचाने का कारण बनता है। सभी प्राणी मेरे लिए मित्रवत् हैं; मेरा किसी से भी वैर नहीं है, ऐसी भावना से प्रेरित होकर हम व्यावहारिक जीवन में इसे उतारने का प्रयत्न करें तो फिर अहंकारवश उत्पन्न हुआ क्रोध या दुद्वेष समाप्त हो जाएगा और तब अपराधी के प्रति भी हमारे मन में क्षमा का भाव पैदा होगा। क्षमा का यह उदात्त भाव हमें हमारे परिवार से सामंजस्य कराने व पारस्परिक प्रेम को बढ़ावा देने में अहं भूमिका निभाता है।
हमें ईर्ष्या तथा दुद्वेष रहित होकर लोभवृत्ति का त्याग करते हुए संयमित खान-पान तथा व्यवहार एवं क्षमा की भावना को जीवन में उचित स्थान देते हुए अहिंसा का एक ऐसा जीवन जीना है कि हमारी जीवन-शैली एक अनुकरणीय आदर्श बन जाए।
प्रश्न -
(क) अहिंसात्मक जीवन शैली से लेखक का क्या तात्पर्य है? (2)
(ख) कैसी जीवन शैली अनुकरणीय हो सकती है? (2)
(ग) 'जियो और जीने दो' की बात किसने कही? इसका आशय स्पष्ट कीजिए। (2)
(घ) अहिंसा में क्रोध और द्वेष को छोड़ने की बात पर लेखक ने क्यों बल दिया है? (2)
(ङ) क्षमा का भाव पारिवारिक जीवन में क्या परिवर्तन ला सकता है? (2)
(च) 'क्रोध अंधा बना देता है' का आशय स्पष्ट कीजिए और बताइए कि लेखक ने इसे हिंसा की प्रवृत्ति का - प्रारंभिक रूप क्यों कहा है? (2)
(छ) उपसर्ग और प्रत्यय अलग कीजिए : अनुचित, पारस्परिक । (1)
(ज) विशेषण बनाइए : उन्नति, क्षभा (1)
(झ) प्रस्तुत गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए। (1)
उत्तर-
(क) अहिंसात्मक जीवन शैली से लेखक का तात्पर्य है-किसी जीव का संकल्पपूर्वक वध न करना और किसी जीव या प्राणी को अकारण दुख न पहुँचाना। ऐसी जीवन शैली जीने का नाम ही अहिंसात्मक जीवन-शैली है।
(ख) जिस जीवन-शैली में ईर्ष्या, द्वेष और लोभ की प्रवृत्ति का भाव न हो तथा व्यक्ति संयमित जीवन जीता हो और क्षमा तथा अहिंसा की भावना को सदैव ध्यान में रखकर जीवन जिया जाए, वही जीवन-शैली अनुकरणीय हो सकती है।
(ग) 'जियो और जीने दो' की बात भगवान महावीर ने कही। इसका आशय यह है कि स्वयं भी अहिंसा का मार्ग अपनाकर जियो और अन्य प्राणियों के प्रति अहिंसा अपनाकर उन्हें कष्ट मत पहुँचाओ तथा उनके जीवन में हस्तक्षेप किए बिना उन्हें भी जीने दो।
(घ) अहिंसा में क्रोध और द्वेष को छोड़ने की बात पर लेखक ने इसलिए बल दिया है, क्योंकि क्रोध के वशीभूत होकर मनुष्य अपना विवेक खो बैठता है जो दूसरों को हानि पहुँचाने का कारण बन जाता है, जबकि मित्रवत व्यवहार करने पर क्रोध एवं दुद्वेष अपने-आप समाप्त हो जाते हैं।
(ङ) क्षमा का भाव हमारे पारिवारिक जीवन में सामंजस्य स्थापित करता है तथा पारस्परिक प्रेम को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है।
(च) क्रोध की मन:स्थिति में व्यक्ति उचित-अनुचित का निर्णय नहीं ले पाता है। इससे व्यक्ति का व्यवहार अंधों जैसा हो जाता है। क्रोध व्यक्ति को अनुचित कार्य करने के लिए प्रेरित करता है जो दूसरों के दुख एवं पीड़ा का कारण बनता है। यहीं से हिंसा की शुरुआत होती है, इसलिए इसे हिंसक प्रवृत्ति का प्रारंभिक रूप बताया है।
(छ) अनुचित : उपसर्ग-अन। पारस्परिक : प्रत्यय - इक ।
(ज) विशेषण : उन्नति - उन्नतिशील । क्षमा- क्षमावान।
(झ) शीर्षक: जीवन में अहिंसा की महत्ता ।
अपठित गद्यांश - अभ्यास 5
प्रजातंत्र के तीन मुख्य अंग हैं-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका | प्रजातंत्र की सार्थकता एवं दृढ़ता को ध्यान में रखते हुए और जनता के प्रहरी होने की भूमिका को देखते हुए मीडिया (दृश्य, श्रव्य और मुद्रित) को भी प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में देखा जाता है। समाचार माध्यम या मीडिया को पिछले वर्षों में पत्रकारों और समाचार-पत्रों ने एक विश्वसनीयता प्रदान की है और इसी कारण विश्व में मीडिया एक अलग शक्ति के रूप में उभरा है। कार्यपालिका और विधायिका की समस्याओं, कार्य प्रणाली और विसंगतियों की चर्चा प्रायः होती रहती है और सर्वसाधारण में वे विशेष चर्चा के विषय रहते ही हैं। इसमें समाचार पत्र, रेडियो और टी०वी० समाचार अपनी टिप्पणी के कारण चर्चा को आगे बढ़ाने में योगदान करते हैं, पर न्यायपालिका अत्यंत महत्वपूर्ण होने के बावजूद इसके बारे में चर्चा कम ही होती है। ऐसा केवल अपने देश में ही नहीं, अन्य देशों में भी कमोबेश यही स्थिति है। स्वराज-प्राप्ति के बाद और एक लिखित संविधान के देश में लागू होने के उपरांत लोकतंत्र के तीनों अंगों के कर्तव्यों, अधिकारों और दायित्वों के बारे में जनता में जागरूकता बढ़ी है। संविधान निर्माताओं का उद्देश्य रहा कि तीनों अंग परस्पर तालमेल से कार्य करेंगे। तीनों के पारस्परिक संबंध भी संविधान द्वारा निर्धारित हैं, फिर भी समय के साथ-साथ कुछ समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं। आज लोकतंत्र यह महसूस करता है कि न्यायपालिका में भी अधिक पारदर्शिता हो, जिससे उसकी प्रतिष्ठा और सम्मान बढ़े। 'जिस देश में पंचों को परमेश्वर मानने की परंपरा हो, वहाँ न्यायमूर्तियों पर आक्षेप दुर्भाग्यपूर्ण है।'
प्रश्न-
(क) लोकतंत्र के तीनों अंगों का नामोल्लेख कीजिए। चौथा अंग किसे माना जाता है? (1)
(ख) लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका स्पष्ट कीजिए | (2)
(ग) अत्यंत महत्वपूर्ण अंग होने के बावजूद न्यायपालिका के बारे में मीडिया में कम चर्चा क्यों होती है? (2)
(घ) जनता में अधिकारों और दायित्वों के प्रति जागरूकता बढ़ाने में किनका योगदान है? (1)
(ङ) 'पारदर्शिता' से क्या तात्पर्य है? लोकतंत्र न्यायपालिका में अधिक पारदर्शिता क्यों चाहता है? (2)
(च) आशय स्पष्ट कीजिए- 'जिस देश में पंचों को परमेश्वर मानने की परंपरा हो, वहाँ न्यायमूर्तियों पर आक्षेप दुर्भाग्यपूर्ण हैं।' (2)
(छ) उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए। (1)
(ज) कर्मवाच्य में बदलिए- समाचार पत्रों ने विश्वसनीयता प्रदान क़ी हैँ (1)
(झ) वाक्य में प्रयोग कीजिए : मर्यादा, विसंगति। (2)
(ञ) निम्नलिखित शब्दों का विलोम बताइए : (1)
विशेष, लोकतंत्र ।
उत्तर-
(क) प्रजातंत्र के तीनों अंगों के नाम हैं-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका प्रजातंत्र का चौथा अंग मीडिया को माना जाता है।
(ख) लोकतंत्र में मीडिया महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मीडिया को 'जनता का प्रहरी' कहा जाता है। वह विधायिका और कार्यपालिका की गतिविधियों पर पैनी निगाह रखता है। वह जनता की बातें सरकार तक और सरकार की बातें जनता तक पहुँचाता है।
(ग) न्यायपालिका लोकतंत्र का अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है, पर न्यायपालिका की कार्यप्रणाली की प्रायः आलोचना नहीं की जाती है, अतः उसकी चर्चा बहुत कम होती है। भारत ही नहीं, विश्व के अन्य देशों की भी यही स्थिति है।
(घ) जनता के अधिकारों और दायित्वों के प्रति जागरूकता बढ़ाने में मीडिया का बहुत योगदान होता है।
(ङ) पारदर्शिता से तात्पर्य है-सब कुछ साफ़-साफ़ सभी को दिखाई देना। उसमें कुछ छिपा न हो। लोकतंत्र न्यायपालिका में अधिक पारदर्शिता इसलिए चाहता है ताकि उसकी विश्वसनीयता लोगों के बीच बढ़ती रहे, जिससे न्यायपालिका की प्रतिष्ठा और सम्मान में वृद्धि होती रहे।
(च) हमारे देश में पंचों को भगवान के समकक्ष माना जाता रहा है। उनका हर निर्णय शिरोधार्य समझा जाता रहा है। उनके निर्णय सभी को स्वीकार होते थे, परंतु आज न्यायमूर्तियों पर भी आरोप लगने लगे हैं कि पैसों के लेन-देन से उनका निर्णय प्रभावित हो रहा है। इससे लोगों में गलत संदेश जाता है।
(छ) शीर्षक: 'न्यायपालिका की महत्ता' अथवा 'न्यायपालिका की पारदर्शिता'।
(ज) समाचार पत्रों द्वारा विश्वसनीयता प्रदान की गई है।
(झ) वाक्य-प्रयोगः
मर्यादा-हमें समाज की मर्यादा को ध्यान में रखकर आचरण करना चाहिए।
विसंगति-राजनीतिज्ञों द्वारा प्रस्तुत किए गए चुनाव खर्च में विसंगति देखी जाती है।
(ञ) विलोम : विशेष x सामान्य / साधारण
लोकतंत्र × राजतंत्र / तानाशाही
अपठित गद्यांश - अभ्यास 5
कहते हैं जहाँ नदी नहीं, वहाँ सभ्यता व संस्कृति नहीं पनप सकती। यहाँ एक दूसरी त्रासदी है, जिस नदी के किनारे भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का विकास हुआ हो, जिस नदी को महाभारत में माँ की संज्ञा दी गई हो, जिसको वेदों में देवी कहकर पुकारा गया हो, जिस नदी के किनारे गीता का उपदेश दिया गया हो, जो नदी भारतीय जनमानस की भावनाओं की संवाहिनी हो, आज से लगभग हजारों वर्ष पूर्व 'सरस्वती' नाम की यह नदी लुप्त हो चुकी है।
ऋग्वेद में वर्णन मिलता है- एक विशाल नदी जो तीव्रता के साथ गर्जन करती हुई पर्वत से निकलकर समुद्र में विलीन होती थी, कालांतर में विलुप्त हो गई। सरस्वती नदी के किनारे जो सभ्यता एवं संस्कृति पनपी, वह आज भी प्रामाणिक तौर पर विद्यमान है। जनमानस की भावनाओं में आज भी सरस्वती उसी तरह से संचारित हो रही है।
इस भव्य नदी के किनारे लगभग 10.22 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली विश्व की प्राचीन सभ्यता का जन्म हुआ। सरस्वती के उद्गम स्थल से लेकर अरब सागर के तट तक लगभग 1600 किलोमीटर लंबी नदी के किनारे से 6 हजार वर्ष पुराने लगभग 1200 स्थानों से अनेक पुरातात्विक अवशेष प्राप्त होते हैं। तत्कालीन समय में यह गर्जन करती हुई बहा करती थी। इसका उद्गम स्थल बंदरपूंछ उत्तराखंड था, जो हरियाणा के क्षेत्र से होती हुई राजस्थान से गुजरती हुई भाटनेर मरु भूमि में विलुप्त हो जाती थी. जबकि इसकी दूसरी शाखा घग्गर के रूप में भारत में और हाकरा के रूप में पाकिस्तान में आज भी प्रवाहित होती है।
प्रश्न-
(क) सरस्वती नदी के बारे में वेद में क्या वर्णन किया गया है?
(ख) विश्व की प्राचीन सभ्यता कहाँ और कितने क्षेत्र में फैली थी?
(ग) भारतीय संस्कृति में 'सरस्वती' नदी को क्यों विशेष माना गया है?
(घ) 'सरस्वती' नदी का उद्गम कहाँ माना जाता है और यह कहाँ विलुप्त हुई थी?
(ङ) विश्व की प्राचीन सभ्यता का जन्म किस नदी के किनारे हुआ? उस नदी की लंबाई कितनी थी?
(च) 'घग्गर' और 'हाकरा' के स्वरूप को स्पष्ट कीजिए।
(छ) महाभारत में किस नदी को 'माँ' की संज्ञा दी गई है? क्यों?
(ज) उक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(झ) 'संवाहिनी' शब्द का वाक्य में प्रयोग कीजिए।
(ञ) नदियों के किनारे ही सभ्यता और संस्कृति का विकास क्यों संभव है?
उत्तर-
(क) विशाल नदी तीव्र गर्जन करती पर्वत से निकल समुद्र में विलीन होती थी, कालांतर में विलुप्त हो गई।
(ख) सरस्वती नदी के किनारे 10.22 वर्ग कि० मीटर क्षेत्र में फैली थी।
(ग) इस नदी के किनारे गीता का उपदेश दिया गया।
(घ) उद्गम स्थल- बंदरपूंछ उत्तराखंड- भाटनेर मरु भूमि में विलुप्त ।
(ड़) सरस्वती नदी के किनारे, नदी की लंबाई- 1600 किलोमीटर।
(च) 'घग्गर' और 'हाकरा' सरस्वती का ही भाग, भारत में 'घग्गर' के रूप में और 'हाकरा' के रूप में पाकिस्तान में आज भी प्रवाहित ।
(छ) सरस्वती नदी को 'माँ' की संज्ञा, इसे माँ कहा गया, सभ्यता-संस्कृति का विकास।
(ज) सरस्वती माँ / सरस्वती नदी/ सभ्यता-संस्कृति की रक्षक/ सभ्यता-संस्कृति की पोषक।
(झ) उचित वाक्य प्रयोग जैसे नदियाँ ही हमारी सभ्यता व संस्कृति की संवाहिनी है।
(ञ) नदियों के किनारे जीवन है, बिना पानी जीव नहीं रह सकते, वहाँ ही उनकी मूल आवश्यकताएँ पूर्ण हो पाती हैं। अतः सभ्यता-संस्कृति नदी किनारे विकसित होती है और पनपती है।
यदि आपको और अभ्यास पत्र चाहिए तो आप कमेंट करके बता सकते हैँ, आपके लिए और अभ्यास पत्र हल सहित और हल रहित उपलब्ध करा दिए जायँगे ।
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