एक कामकाजी औरत की शाम


मनुष्य ने सभ्यता की ओर ज्यों-ज्यों कदम बढ़ाए, त्यों-त्यों उसकी आवश्यकताएँ बढती गई। इन आवश्यकताओं को पूर्ति के लिए उसे धन की ज़रूरत पड़ी। जब तक ये आवश्यकताएँ सीमित थीं, तब तक घर के मुखिया के कमाने पर ही काम चल जाता था, परंतु आवश्यकताएँ बढ़ने के साथ ही एक व्यक्ति की कमाई अपर्याप्त सिद्ध हुई। इसमें हाथ बँटाने के लिए नारी को भी काम करने के लिए विवश होना पड़ा। इस प्रकार आज की नारी का काम करना उसकी स्वेच्छा नहीं, विवशता है। आज यह खुद उसकी आर्थिक स्वतंत्रता के लिए भी आवश्यक हो गया है। एक ओर घरेलू काम, दूसरी ओर दफ़्तर के काम। ऐसे में उसकी व्यस्तता बढ़ जाना स्वाभाविक ही है।


औरत के कामकाजी बनते ही उसकी दिनचर्या जटिल हो जाती है। उसे पल-पल का उपयोग करना होता है। प्रात:काल बच्चों को तैयार करने, पति एवं स्वयं के लिए नाश्ता बनाने, दफ़्तर के लिए तैयार होने में निकल जाता है। सारा दिन ऑफ़िस में कार्य करते बीतता है। काम के बीच कब समय बीत जाता है, पता ही नहीं चलता। यह तो दफ़्तर की घड़ी से ही ज्ञात होता है कि घर जाने का समय हो गया है। घर पर उसके लिए आराम कहाँ! ऑफ़िस से बुरी तरह थकी-हारी वह घर लौटती है। यहाँ उसकी अलग दिनचर्या शुरू होती है। कामकाजी औरत के घर आने से पूर्व उसके बच्चे स्कूल से घर आ चुके होते हैं। वे बेसब्री से माँ की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं। बच्चों से मिलकर उसकी थकान कुछ कम हो जाती है। बच्चे माँ से मिलकर प्रसन्न होते हैं। कामकाजी औरत बच्चों को खाने-पीने को देती है। वह अपने लिए चाय बनाती है, पीती है और आराम करने का समय मिलते न मिलते पति के आने का समय हो जाता है। वह उनकी प्रतीक्षा करती है और आते ही उनकी आवभगत में जुट जाती है। पति के आते ही उनके लिए चाय-नाश्ता तैयार करके उन्हें देती है और दिनभर की बातों के प्रति विचार-विमर्श करती है। यदि पति के साथ उनके एक-दो मित्र आ गए हैं तो यह व्यस्तता और भी बढ़ जाती है। उसके लिए एक-दो नए काम कम-ज्यादा होना तो लगा ही रहता है। ऑफ़िस की कामकाजी औरत अब पूरी तरह से घरेलू औरत बन चुकी होती है।


कामकाजी से घरेलू औरत बनी उस औरत को रात का खाना पकाने की चिंता सताती है, क्योंकि पति और बच्चों की पसंद का ध्यान जो रखना है। उसकी पसंद कब की परिवार की पसंद के साथ विलीन हो चुकी होती है। वह खाना तैयार तो करती है, पर उसका ध्यान बच्चों को मिले गृहकार्य की ओर भी लगा रहता है। खाना बनाने से मुक्त होते ही वह बच्चों को गृहकार्य कराने बैठ जाती है। वह इस बीच समय मिलने पर गीत-संगीत सुनकर या टेलीविज़न पर कार्यक्रम देखकर अपना मनोरंजन कर लेती है। वह पति-बच्चों से कुछ बातें कह-सुनकर अपना मन हल्का कर लेती है। वह समाचार देख-सुनकर देश-विदेश की स्थिति से भी अवगत होती रहती है। रात्रि का भोजन वह पति और बच्चों के साथ मिलकर करती है। अगले दिन की कुछ योजनाएँ बनाई जाती हैं। कल कौन-कौन-से आवश्यक काम कैसे निबटाने हैं, इस पर विचार-विमर्श किया जाता है। घर-परिवार-समाज से संबंधित कुछ बातें की जाती हैं। परस्पर यूँ विचार-विमर्श और राय-मशवरा से आधी थकान और समस्या स्वयमेव हल हो जाती है। कामकाजी औरत के कार्यस्थल का वातावरण कितना अच्छा है, इसका कामकाजी औरत की कार्य-क्षमता और शारीरिक-मानसिक दशा पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। यदि कार्य-स्थल पर शोर-शराबा, झगड़ा, असहज वातावरण रहता है, तो इसका असर कामकाजी औरत के मनोमस्तिष्क पर बना रहता है। वह शाम को घर आकर चिड़चिड़ाई-सी रहती है। बात-बात पर बच्चों को झिड़कती रहती है। पति की बातों का उपेक्षाभाव से जवाब देती है। वह स्वयं थकी-सी रहती है और घरेलू कार्य में उसका मन नहीं लगता। इसके अलावा यदि कार्य-स्थल पर बहुत सारा काम है तो भी कामकाजी औरत जो दफ़्तर में काम के बोझ से दबी होती है, की शारीरिक, मानसिक थकान का असर घरेलू वातावरण को प्रभावित करता है। इससे सारे परिवार की शाम सुखद नहीं रह पाती। यह सब बहुत कुछ कार्य-स्थल की परिस्थितियों पर निर्भर करता है।


निस्संदेह कामकाजी औरत की शाम अन्य घरेलू औरतों से अधिक व्यस्त होती है। फिर एक कामकाजी औरत शाम को घर आकर अपनी थकान और दफ़्तर की चिंता भूल जाती है। शाम को घर के सुखद वातावरण में नई स्फूर्ति पाकर अगले दिन के लिए तरोताज़ा हो जाती है। वह अपनी शाम को अपने हर संभव प्रयास से रोचक एवं मनोरंजक बनाना चाहती है। 

No comments:

Post a Comment

Thank you! Your comment will prove very useful for us because we shall get to know what you have learned and what you want to learn?