भारतीय समाज में अंधविश्वास


जीवन को व्यवस्थित करने के लिए मानव ने नियमों की संकल्पना की, जिन्हें 'धर्म' की संज्ञा दी गई। इनका उद्देश्य मानव-जीवन को सुखी, संपन्न व व्यवस्थित बनाना था। समय बदलने के साथ-साथ कुछ नियम अप्रासंगिक हो गए और वे अंधविश्वास का रूप धारण करने लगे। आधुनिक युग में ये अंधविश्वास प्रगति में बाधक सिद्ध हो रहे हैं।


भारतीय समाज के अनेक विश्वास जीवन की गतिशीलता के साथ न चलने के कारण पंगु हो गए हैं। इन अंधविश्वासों में धर्म की रूढिबद्धता, आभूषण-प्रेम, जादू-टोने में विश्वास, देवी-देवताओं के प्रति अबौद्धिक श्रद्धा आदि सामाजिक कुरीतियाँ हैं। ये कुरीतियाँ आज देश की प्रगति में बाधक सिद्ध हो रही हैं।


धर्म की रूढ़िबद्धता से तात्पर्य उसको व्यापक रूप से न लेकर उसको सांप्रदायिक रूप से लेने से है। धर्म के वास्तविक स्वरूप को भूलकर उसके संकुचित रूप पर संघर्ष हो रहा है। राजनीति इन सांप्रदायिक ताकतों को हवा देती है। हमारे धर्म में कर्म के अनुसार जाति प्रथा का विधान किया गया, परंतु बाद में उसे जन्म के आधार पर मान लिया गया। आज उसकी प्रासंगिकता समाप्त हो गई है, परंतु आरक्षण, जातिगत श्रेष्ठता के भाव संघर्ष का कारण बने हुए हैं। इसी तरह मुसलमानों के आगमन से देश में छुआछूत की भावना को बढ़ावा मिला। युद्धों में गिरफ़्तार लोगों को मुसलमानों के हाथ का खाना पड़ता था। फलत: हिंदू समाज उन्हें बहिष्कृत कर देता था। भारतीय हिंदू समाज का सबसे बड़ा अंधविश्वास छुआछूत पर विश्वास है। जाति-प्रथा के कारण चमार, धोबी, भंगी आदि जातियों को अस्पृश्य माना गया है। उनके साथ भोजन करना, उठना-बैठना आदि तक निषेध करार दिया गया है। इससे समाज खोखला हो गया है। भारत में नारियों का आभूषण-प्रेम किसी से छिपा नहीं है। सौंदर्य की वृद्धि के लिए आभूषणों का प्रयोग ठीक है, परंतु गरीब व्यक्तियों की इसके लिए अनेक कठिनाइयाँ उठानी पड़ती हैं। सोने की खपत अधिकतर आभूषणों में होती है। यह सोना राष्ट्रीय उन्नति में काम आ सकता है, परंतु अंधविश्वास के कारण यह संपत्ति निरर्थक पड़ी है। भारतीय समाज का एक बड़ा वर्ग जादू -टोने में विश्वास रखता है। मीडिया के प्रसार व बौद्धिकता बढ़ने से जादू-टोने का जाल कम होने लगा है। अब भी यदा-कदा नरबलि, सती-प्रथा की घटनाएँ प्रकाश में आती हैं। किसी को मनहूस कहकर उसका शारीरिक व मानसिक विकास अवरुद्ध कर दिया जाता है। समाज में अनेक तरह के अपशकुन अब भी प्रचलित हैं, जैसे बिल्ली द्वारा रास्ता काटा जाना, छींक आना, पीछे से आवाज़ देना, चलते हुए अँधेरा होना आदि। कई लोग इनके कारण अपने महत्वपूर्ण काम तक रोक देते हैं।


हमारे समाज का सबसे बड़ा अंधविश्वास समग्र रूप में परंपराओं के प्रति अंधभक्ति है। आज भी हम अनेक अव्यावहारिक बातों से जुड़े हुए हैं। फलित ज्योतिष विद्या के नकली धनी इस प्रकार के विश्वास की आड़ में अपना पेट भरते हैं। लड़की के जन्म को अशुभ मानना, विवाह में सामर्थ्य से अधिक व्यय आदि भी इन्हीं अंधविश्वासों की उपज है। दान, श्राद्ध, ग्रहण दान आदि भी अंधविश्वास के कारण पनप रहे हैं। अब धर्मगुरुओं की एक ऐसी 'जमात' तैयार हो चुकी है, जो आस्था के नाम पर जनता को भ्रमित कर रही है। मीडिया भी इसमें पूरे मनोयोग से सहयोग कर रही है। आवश्यकता इस बात की है कि धर्म के वास्तविक रूप को समझकर आचरण करें और अपनी प्रगति करें। अंधविश्वासों के कारण देश का विकास अवरुद्ध हो रहा है। इनके कारण जनसंख्या-विस्फोट जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई है। सरकारी प्रयास भी असफल हो रहे हैं। समाज को चाहिए कि नए जमाने के साथ कदम-से-कदम मिलाकर चले और अंधपरंपराओं को सदा के लिए दफ़न कर दे। 

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