मानव सभ्यता के विकास के साथ जीवनयापन में कठिनाई आती जा रही है। आज जीवन के साधन अत्यंत महँगे होते जा रहे हैं। इस कारण परिवार का निर्वाह मुश्किल से हो रहा है। इस समस्या का मूल खोजने पर पता चलता है कि जनसंख्या वृद्धि के अनुपात जीवनोपयोगी वस्तुओं एवं साधनों में वृद्धि नहीं हुई है। इस कारण अब हर परिवार में सदस्यों की संख्या कम करने के लिए अनेक उपाय अपनाए गए हैं। हर देश में परिवार को छोटा रखने की प्रवृत्ति बढ़ रही है।
आज हमारे सामने प्रश्न यह है का छोटे परिवार का सुख क्या है तथा दुख क्या ? छोटे परिवार के सुखी होने के पीछे अनेक तर्क दिए में जाते हैं। सर्वप्रथम, छोटे परिवार में सुखदायक संसाधन आसानी से उपलब्ध कराए जा सकते हैं। यदि कोई कठिनाई आती है तो उसका निराकरण उतना कठिन भी नहीं होता। मान लीजिए किसी परिवार में तीन लड़कियाँ व दो लड़के हैं तथा जायदाद के नाम पर पाँच एकड़ जमीन है तो यह समस्त संपत्ति इन सभी बच्चों की शिक्षा, विवाह तथा व्यवसाय आदि के प्रबंधन में खत्म हो जाएगी। इसके विपरीत, यदि किसी परिवार के पास दो ही बच्चे हों, तो यह जायदाद सामान्य तौर पर बच जाती है। इसी तरह की स्थिति व्यवसायी के लिए भी होती है। यदि परिवार नौकरी-पेशा वर्ग से है तो बड़े परिवार के लिए स्थितियाँ अत्यंत विकट हो जाती हैं। आधुनिक समय में रोजगार, मकान आदि की व्यवस्था बेहद महँगी होती जा रही है। अत: नौकरी-पेशा व्यक्ति के लिए सभी बच्चों को ये सुविधाएँ देना दूर की कौड़ी बन जाता है। इस कारण छोटा परिवार सुखी माना जाता है।
आज भारत की जनसंख्या इतनी तेजी से बढ़ रही है कि आने वाले समय में मनुष्य एक-दूसरे को खाने व निगलने के लिए व्याकुल दिखाई देंगे। जीवनोपयोगी वस्तुओं, अन्न-जल तक का और भी अभाव हो जाएगा। मनुष्य-मनुष्य का शत्रु बन जाएगा और रिश्ते-नाते सभी समाप्त हो जाएँगे। ऐसे समय में छोटे परिवार ही सुखी रहेंगे।
परिवार छोटा होने पर हर सदस्य को आयु के अनुसार सुविधाएँ उपलब्ध करवाई जा सकती हैं। सभी को पौष्टिक भोजन, तन ढकने को अच्छा वस्त्र और रहने के लिए साफ-सुथरा आवास दिया जा सकता है। शिक्षा व स्वास्थ्य का भी पूरा ध्यान रखा जा सकता है। यह उचित व्यवस्था ही उस परिवार के सुख का कारण बनती है। इसके विपरीत, बड़े परिवार में चाहे वह कितना ही संपन क्यों न हो, हरेक के लिए सुविधाएँ नहीं जुटा सकता। सभी के लिए उचित व पौष्टिक आहार, वस्त्र, आवास की व्यवस्था कर पाना संभव नहीं। पढ़ाई-लिखाई का खर्च उठा पाना भी दूर की कौड़ी जैसा ही है।
ऐसा नहीं है कि छोटे परिवार के सिर्फ सुख ही हैं, दुख नहीं। छोटे परिवार में सुविधाएँ होती हैं, परंतु अपनापन नहीं होता। छोटे परिवार का व्यक्ति सामाजिक नहीं हो पाता। वह अहं भाव से पीड़ित होता है। इसके अलावा, बीमारी या संकट के समय जहाँ बड़े परिवार की जरूरत होती है, छोटा परिवार कभी खरा नहीं उतरता। इसमें वैयक्तिकता का भाव मुखर होता है, जबकि बड़े परिवारों में प्रेम-भावना, जिम्मेदारी, स्नेह-दुलार मिलता है। बच्चों में बढ़ती हिंसक प्रवृत्ति, मादक द्रव्यों का सेवन आदि प्रवृत्तियाँ छोटे परिवारों की देन हैं। इन सबके बावजूद, आज के वातावरण में यह आवश्यक है कि लोग समझदारी से काम लें। आम व्यक्ति को अपनी सामर्थ्य के अनुसार ही परिवार का विस्तार करना चाहिए। छोटे परिवार के साथ ही जीवन को सहज ढंग से जिया जा सकता है, अन्यथा निरंतर दुख झेलते हुए जीना, जीते जी मर जाने के समान है
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