कामकाजी महिलाओं की समस्याएँ


20वीं सदी के प्रारंभ में विश्व में महिलाओं का स्थान घर-परिवार की जिम्मेदारियाँ तक ही सीमित था। भारत में भी कमोवेश यही स्थिति थी। इस समय महिलाओं को शिक्षा, नौकरी आदि से दूर रखा जाता था महिलाएँ अनेक कुप्रथाओं से ग्रस्त थीं। आधुनिकीकरण के साथ-साथ समाज के संरचनात्मक स्तर में भी परिवर्तन आया। महिलाओं के लिए शिक्षा के द्वार खुले । समाज-सुधार आंदोलनों से धार्मिक कर्मकांडों से मुक्ति मिली। आज़ादी के संघर्ष में महिलाओं ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। इसका परिणाम यह हुआ कि महिलाएँ घर की चहारदीवारी से बाहर निकलीं।


भारत में आजादी के बाद सामाजिक परिदृश्य में भारी बदलाव आए। अभाव और महँगाई से दो-चार होने के लिए महिलाओं को घर के अलावा नौकरी व अन्य व्यवसाय करने पड़े। नर्स, अध्यापिका आदि कुछ कार्य ऐसे हैं, जिन्हें महिलाएँ कुशलतापूर्वक कर सकती हैं, लेकिन अन्य क्षेत्रों में भी वे पुरुषों से कम साबित नहीं होतीं। उनके दैनिक कामकाज का औसत पुरुषों से अच्छा और अधिक रहता है। इन सबके बावजूद, उन्हें हीन दृष्टि से देखा जाता है। दूसरे, यदि महिलाकर्मी कुँवारी है, तब सहकर्मी पुरुषों की ही नहीं, राह चलतों की गिद्ध-दृष्टि भी उसे निगलने को तत्पर रहती है। उसे अनुचित संवाद सुनने पड़ते हैं तथा अनचाहे स्पर्श व संकेत झेलने पड़ते हैं। अधिकारी भी उन्हें अधिक समय तक रुकने के लिए मजबूर करते हैं। हर प्रकार से अच्छा कार्य करने पर भी उन्हें प्रशंसा नहीं, बल्कि दया और करुणा ही मिलती है। घर से दूर होने पर कई महिलाओं की प्रतिभा घुटकर रह जाती है। यदि महिलाएँ साहस करके किराए के आवास में रहती हैं तो भी समाज का नजरिया उनके प्रति उचित नहीं रहता । इसका कारण भारतीय पुरुष की गुलाम मानसिकता है।


विवाहित कामकाजी महिलाओं की समस्या भी कम नहीं होती। उन्हें नौकरी करने के साथ-साथ घर के पूर्वनिर्धारित सभी कार्य करने पड़ते हैं। पुरुष प्रधान समाज में उसके कार्यों को दूसरा कोई नहीं करता। उसका व्यक्तित्व घर-बाहर में बँटा रहता है। अधिक कमाने वाला पति स्वयं को महत्वपूर्ण समझता है तथा कम कमाने वाला हीनग्रंथि का शिकार हो जाता है। ऐसी स्थिति में पति-पत्नी के संबंध तनावपूर्ण हो जाते हैं। अगर घर में सास-ननद हैं तो वे अपने व्यंग्य-वचनों से उसे छलनी करती रहती हैं।


दफ़्तर या कार्यस्थल से लौटकर थकी होने के बावजूद महिलाएँ घर के सभी कार्य करती हैं। इस प्रकार की विषम एवं अटपटी स्थितियों के दुष्परिणाम अकसर सामने आते रहते हैं। कई बार घर-परिवार का बँटवारा हो जाता है तो इसका दोषी भी कामकाजी महिला को माना जाता है। कई बार अहंवादी पतियों-परिवारजनों द्वारा अच्छा-खासा कमानेवालियों की हत्या तक कर देने की घटनाएँ सामने आती हैं। कामकाजी महिला के बच्चों के लिए बड़ी समस्या आती है। ऐसी महिलाओं के बच्चों को सास या ननद भी नहीं रखती, क्योंकि उनका अहं आड़े आता है। इसके अलावा, बच्चों को 'क्रेच' या 'डे केयर सेंटर' जैसी दुकानों पर छोड़कर काम पर जाना पड़ता है, जहाँ मोटी फीस देने पर भी बच्चों को वह सब नहीं मिल पाता जो आवश्यक रूप से मिलना चाहिए। इस प्रकार बच्चे कुपोषण के शिकार हो जाते हैं। साथ ही समाज में घुलमिल नहीं पाते। महिलाओं को फुर्सत नहीं मिल पाती। ऐसी दशा में वे अस्वस्थ, चिड़चिड़ी या तुनकमिजाज हो जाएँ तो स्वाभाविक ही कहा जाएगा।


काम करना किसी भी दृष्टि से अनुचित नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि समाज की मानसिकता, घर-परिवार और समूचे जीवन की परिस्थितियाँ ऐसी बनाई जाएँ कि कामकाजी महिला को काम बोझ न लगे तथा वह पुरुष के समान व्यवहार व व्यवस्था में सहभागी बने |

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