विपत्ति कसौटी जे कसे तेई साँचे मीत
मनुष्य की प्रवृत्ति ऐसी है कि वह अकेला नहीं रह सकता। वह समूह में रहने का इच्छुक होता है तथा करता है। समूह में वह समान प्रवृत्ति और समान कर्म के व्यक्तियों के साथ सुख की साँस लेता है।
मित्रता के संबंध में अनेक प्रश्न उठ खड़े होते हैं। हम सहज रूप से मित्र बना लेते हैं, किंतु वे मित्र की परिभाषा में उपयुक्त है भी या नहीं? एक माँ से उत्पन्न दो संतानें अच्छे मित्र क्यों नहीं बन पाते? मित्र और बाँधव की परिभाषा करते समय पंचतंत्र में कुछ स्पष्ट गुण बताए गए हैं। जो व्यक्ति न्यायालय, श्मशान और विपत्ति के समय साथ देता है, उसी को सच्चा मित्र या बाँधव माना जाता है। मित्रता की पहली कसौटी यह है कि उसमें संदेह का स्थान नहीं होना चाहिए। यदि कोई अपने मित्र को संदेह की दृष्टि से देखता है तो निश्चित रूप से उसमें मित्रता के गुणों का अभाव है। दूसरे, स्वार्थ पर आधारित मित्रता कभी लंबे समय तक नहीं रहती। ऐसी मित्रता कार्य सिद्ध होने पर टूट जाती है। यदि स्वार्थ पूरा नहीं होगा, तो शत्रुता भी हो सकती है। प्रत्यक्ष में गुणों का बखान और पीठ पीछे निंदा को अच्छी मित्रता का लक्षण नहीं माना जाता। मित्रता में विश्वास, आस्था आदि गुणों का होना अनिवार्य है। सच्चा मित्र वही है। जो मित्रता के लिए सब कुछ न्योछावर करने तत्पर हो।
मित्रता केवल समान प्रवृत्ति वाले व्यक्तियों में होती है । एक डाकू का मित्र डाकू ही बनता है। हिटलर व मुसोलिनी की आकांक्षाएँ व स्वभाव लगभग एक से थे, अत: वे दोनों अच्छे मित्र थे। साधु प्रवृत्ति वालों की दोस्ती भी उस जैसे साधु से होती है। दो मित्रों का न कोई धर्म होता है और न कोई संप्रदाय। वे देश-काल की सीमा से भी परे होते हैं। भारत-पाक विभाजन से उत्पन्न घृणा के बीच मित्रता के ऐसे उदाहरण मिल जाते हैं कि आँखें नम हो जाती हैं। अकबर व बीरबल की दोस्ती भी प्रसिद्ध है। कृष्णा-सुदामा की मित्रता से कौन अपरिचित है।
समानशील व्यसनेषु सख्यम्।
समान शील व व्यसन वाले जहाँ भी मिलते हैं, उनमें मित्रता स्वत: विकसित होने लगती है। ध्रूमपान करने वाले के अनेक मित्र शीघ्र बन जाते हैं। मयखाने की दोस्ती कभी नहीं टूटती। पुरानी पुस्तकों में निहित विचारों के अध्ययन मात्र से पाठक-लेखक की आत्माओं के तार मिल जाते हैं। मित्रता तो पति-पत्नी में भी हो सकती है, लेकिन उनमें अकसर मित्र के संस्कार कम, धार्मिक संस्कारों का प्रभाव अधिक होता है। इसलिए कवि कालिदास ने पत्नी को सखा और बंधु से संबोधित किया है।
सामान्यतः देखने में आता है कि व्यक्ति धन-दौलत व रूप को देखकर मित्र बनने या बनाने की कोशिश करता है। वह उसकी प्रशंसा करता है, परंतु समय आने पर उसे नुकसान पहुंचाता है। इसके विपरीत, ऐसे भी मित्र होते हैं जो दोस्त की कमियों पर नजर रखते हैं तथा समय-समय पर उसको आगाह करते रहते हैं। ऐसे मित्रों की बातें कड़वी अवश्य लगती हैं, परंतु वे ही सच्ची मित्रता के हकदार होते हैं। दुर्जन व मित्र के मध्य अंतर स्थापित करना कठिन कार्य रहा है। तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' में दुर्जन व असंत को सर्वप्रथम नमस्कार किया है, क्योंकि उनके रुख के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता।
आजकल स्कूल या कॉलेज में साथ पढ़ने वाले अकसर एक-दूसरे को 'फ्रेंड' यानी मित्र कहते हैं, किंतु ये सच्चे मित्र नहीं हति। सारे स्कूल-कॉलेज या कक्षा में ऐसे इने-गिने छात्र ही होंगे, जिनमें मित्रता की भावना मिलेगी कहना न होगा कि पुस्तकों से अच्छा साथी कोई नहीं होता। पुस्तकों से जीवन-दर्शन के सच्चे दर्शन होते हैं। इनसे नई व पुरानी सामाजिक दशाओं का पता चलता है। संसार के लगभग सभी महान विचारक पुस्तक-प्रेमी रहे हैं। गांधी, विवेकानंद, चाणक्य, नेहरू, शास्त्री आदि सभी पुस्तकों के चहेते रहे हैं। निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि मित्रता की कसौटी आपत्तिकाल है। उसी समय सच्चे मित्र की परख होती है। मित्र के सामने मित्र की सहायता के अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं होता, वह अपने लाभ की चिंता न करके मित्र को लाभ पहुॅचाता है। सच्चे मित्र बहुत कम होते हैं तथा जो होते हैं, उन्हें बनाए रखना हमारा दायित्व होना चाहिए।
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