सहशिक्षा की प्रासंगिकता


सहशिक्षा आधुनिक युग की देन है। आज का विचारक स्त्री-पुरुष के बीच प्राकृतिक भेद तो स्वीकार करता है, परंतु उस भेद को इतना गहरा नहीं मानता कि एक पक्ष को चहारदीवारी में बंद कर दे तथा दूसरे को संपूर्ण सामाजिक जिम्मेदारियाँ सौंपकर निश्चित हो जाए। पुराने जमाने में नारी को शिक्षा केवल धार्मिक स्तर की दी जाती थी, परंतु समय बदलने के साथ समाज में भी परिवर्तन आया। नारी और पुरुष के बीच धीरे-धीरे एक सहयोग भावना का जन्म हुआ।


सहशिक्षा आज एक विद्यमान सत्य है, इसलिए उसकी आवश्यकता और अनावश्यकता पर विचार करने का प्रश्न उतना चिंतन का नहीं है, जितना पहले कभी था। आज यह प्रश्न है कि इस सहशिक्षा से वे उद्देश्य पूर्ण हुए या नहीं, जिसके लिए उसे शुरू किया गया था? सबसे पहले हमें अपनी शिक्षा-पद्धति की उपलब्धि पर विचार करना चाहिए। हमारे देश में अभी तक शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी प्राप्त करना है। इससे देश को अच्छे नागरिक या विचारक नहीं मिलते। इसी कारण से देश में शिक्षित युवाओं का ऐसा समूह तैयार हो गया है जो कर्तव्य को सोचे-समझे और जाने-पहचाने बगैर विध्वंसात्मक कार्यों में लीन रहता है। इसके लिए भ्रष्टाचार, लक्ष्यहीनता, पैसे की पूजा, योग्यता हनन आदि कारक भी जिम्मेदार हैं। बढ़ा हुआ फैशन, स्थूल व उत्तेजनात्मक मनोरंजन, श्रमहीनता का 'शार्टकट' उसे आधुनिक समाज ने ही दिया है।


सहशिक्षा ने हमारे मन को उदारता दी है। लड़के-लड़कियाँ बोलने, आने-जाने व विचार-विमर्श में अब नहीं शरमाते। उनका आत्मविश्वास बढ़ा है। दूसरी तरफ लड़कों के भीतर नारी के प्रति कौतूहल भी प्राय: शांत हुई है। उनके अंदर दंभ का विस्फोटक भी बुझ-सा गया है। सहशिक्षा के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में भी बदलाव आया है। अब लड़के लड़की को साथ देखकर हाय-तौबा नहीं मचती। इसके अतिरिक्त, कक्षा के माहौल में सुधार हुआ है। लड़क व लड़कियों को वेशभूषा व वाणी पर संयम रखना पड़ता है। उन्हें अपमानित होने का भय हमेशा रहता है। यह आत्म-सजगता उन्हें जीने की मर्यादा का पहला पाठ पढाती है


अध्यापक को लड़के-लड़कियों को पढ़ाने के लिए एक संयम का निर्वाह करना पड़ता है. जिससे कक्षा की मर्यादा न टूटे। यह संयम विषय की रोचकता को कम नहीं करता, उसे उपयोगी व सरल बना देता है। अध्यापक का संतुलित व्यक्तित्व ऐसी ही अवस्था में पहचाना जा सकता है। सहशिक्षा के कारण ही नारी हर तरह के कर्मक्षेत्र में कार्य करने में सक्षम हो सकी है।


इसका तात्पर्य यह नहीं है कि सहशिक्षा के फायदे ही फायदे हैं। सहशिक्षा ने लड़कों व लड़कियों में आत्मप्रदर्शन की भावना भर दी है। प्रकृतित: दोनों एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं, परंतु वे आकर्षण जगाने के लिए अप्राकृतिक उपकरणों का सहारा लेते हैं। लड़के जर्सिया पहने, कॉलर खड़े किए, फटी जींस पहने, बाल अजीब तरह से कटे हुए, बाँहों को ऊपर चढ़ाए तशरीफ लाते हैं तो लड़कियों रंग-बिरंगे कपड़ों तथा अजीब मेकअप से सजी हुई आती हैं।

सहशिक्षा का सबसे बड़ा नुकसान है-उत्तरदायित्व का। समाज में पुरुष व नारी के उत्तरदायित्व अलग-अलग निर्धारित किए गए हैं। लड़कियों को घर-व्यवस्थित करना होता है तो पुरुष को बाह्य संघर्ष झेलना होता है। दोनों के उद्देश्य अलग हैं, परंतु सहशिक्षा से यह संभव नहीं हो पाता। नारी का घर से बाहर निकल जाना आर्थिक स्वतंत्रता की दृष्टि से कितना भी महत्वपूर्ण क्यों न हो, सामाजिक संतुलन की दृष्टि से घातक होगा।


निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि सहशिक्षा तभी प्रभावी हो सकती है, जब हम पहले शिक्षा के सामान्य उद्देश्य में परिवर्तन करेंगे। नारी के कोमल गुणों को सुरक्षित रखना होगा, अन्यथा समाज बिखर जाएगा। सहशिक्षा जीवन को विकास तभी देगी, जब शिक्षा का उद्देश्य होगा-विवेक का विकास और राष्ट्रीय भावना की समृद्धि। जब तक शिक्षा ज्ञान और कर्तव्य को नहीं जोड़ती, तब तक वह शिक्षा नहीं हो सकती।

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