मेरे जीवन का लक्ष्य


जीवन एक यात्रा के समान है। जिस प्रकार यात्रा प्रारंभ करने से पहले व्यक्ति अपना गंतव्य स्थान निश्चित करता है, वैसे ही हमें भी अपनी जीवन-यात्रा प्रारंभ करने से पहले अपना कार्य-क्षेत्र निर्धारित कर लेना चाहिए। हर विद्यार्थी को अपने जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य निश्चित कर लेना चाहिए। लक्ष्यहीन जीव स्वच्छंद रूप से सागर में छोड़ी हुई नाव के समान होता है। ऐसी नौका या तो भँवर में डूब जाएगी या चट्टान से टकराकर चूर-चूर हो जाएगी।

कल्पना के स्वर्णिम वातावरण में विचरण करना मानव का सहज स्वभाव है। अनेक विद्यार्थी ऐसे कार्य की धारणा आरंभ से ही बना लेते हैं, जिन्हें करने की न उनमें क्षमता होती है और न योग्यता। इसलिए इस संदर्भ में मनुष्य को सोच-समझकर कदम उठाना चाहिए। मैंने अपने जीवन में अध्यापक बनने का निश्चय किया है। मैं उस व्यवसाय को श्रेष्ठ समझता हूँ, जिससे व्यक्ति अपना व अपने परिवार का तो कल्याण कर ही सके, साथ ही समाज को भी दिशा-निर्देश दे सके। अध्यापक का जीवन भी कुछ इसी प्रकार का है। वह सरस्वती के मंदिर का एक ऐसा पुजारी है जो मनुष्य को सच्चा मानव बनाता है। बिना विद्या के मनुष्य बिना सींग और पूँछ के चलता-फिरता पशु है। महादेवी जी का कहना है-"विकसते मुरझाने को फूल , उदय होता छिपने को चंद'" अर्थात् फूल मुरझाने के लिए विकसित होता है और चाँद छिपने के लिए, किंतु फूल मुरझाने से पहले अपनी सुगंध का प्रसार करता है। चाँद भी अपनी शीतल चाँदनी से संसार को आनंदित करता है। इस तरह मैं व्यक्ति की योग्यता को तब-तक सार्थक नहीं समझता जब-तक वह समाज के लिए लाभदायक न हो। अध्यापक यह कार्य करने की सर्वाधिक क्षमता रखता है।


मेरा विश्वास है कि शिक्षा के समुचित विकास के बिना कोई भी नागरिक न अपने अधिकारों को सुरक्षित रख सकता है और न कभा दूसरों के अधिकारों का सम्मान कर सकता है। उनमें 'जीओ और जीने दो' की भावना भी नहीं पनपती । मैं एक शिक्षक बनकर शिक्षा को जीवनोपयोगी बनाने का प्रयत्न करूँगा।


प्रचलित शिक्षा-पद्धति में अनेक कमियाँ हैं। अंग्रेज़ों का उद्देश्य भारत में सस्ते क्लर्क पैदा करना था। अतः उन्होंने गुलाम मानसिकता प्रदान करने वाली शिक्षा-व्यवस्था बनाई, जो चंद परिवर्तनों को छोड़कर आज भी ज्यों-की-त्यों लागू है। मैं इस क्षेत्र में कुछ परिवर्तन करना चाहूँगा। विद्यालय परिसर के बाहर भी विद्यार्थियों के साथ अत्यंत निकट का संपर्क स्थापित करूँगा और हर विद्यार्थी को योग्यता व रुचि को समझने का प्रयत्न करूँगा। पढ़ाई के साथ-साथ कला, शिल्प आदि सिखाने का भी भरसक प्रयास करूँगा, जिससे विद्यार्थी केवल नौकरी पर आश्रित न रहे, अपितु वह अन्य क्षेत्रों में भी रोजगारपरक कार्य कर सके। वह केवल कलम उठाने के योग्य न हो, बल्कि हल और बंदूक भी उठा सके। इस प्रकार की शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति को एक-एक विषय का विशेषज्ञ बना देगी। मैं सदैव शिक्षा, सद्व्यवहार और सहानुभूति द्वारा छात्रों में श्रेष्ठ भाव उत्पन्न करने का प्रयत्न करूँगा। अच्छा अध्यापक सदैव उन्नति ही करता है। राधाकृष्णन और जाकिर हुसैन राष्ट्रपति के पद तक पहुँचे। वैसे जीवन में कोई भी कार्य बुरा नहीं होता, परंतु जो भी कार्य किया जाए, उसे मनोयोग से अच्छी तरह से पूर्ण किया जाए। अत: अध्यापक बनना भी मैं तभी तक अच्छा समझता हूँ, जब तक इस कार्य को अच्छी तरह निभाया जाए।


अध्यापक ही बच्चों को मानवता और विश्वबंधुत्व का पाठ पढ़ाता है। इसीलिए कबीर ने गुरु को गोविंद से भी उच्च आसन पर आसीन किया है-


"गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पाँय।

बलिहारी गुरु आपनो, जिन गोविंद दियो बताय॥"


गुरु ही हमें अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश में लाता है और विद्यामृत का पान कराकर अमर बनाने का पूर्ण प्रयत्न करता है। मैं भी अपने कर्तव्यपालन में पूर्णतः सफल होने का प्रयत्न करूँगा । शिक्षक बनकर आज के बालक जो कल के नेता और निर्माता हैं, उनमें शारीरिक, मानसिक और नैतिक गुणों के साथ बौद्धिक तथा अध्यात्मिक शक्तियों का विकास कर, उन्हें विश्व-कल्याण में सहायक बनाने का प्रयत्न करूँगा। सफल और श्रेष्ठ अध्यापक बनकर छात्रों के मनमंदिर का देवता बनने का सौभाग्य प्राप्त करूँगा।

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