मन के हारे हार है मन के जीते जीत


मन सांसारिक बंधन और उनसे छुटकारा पाने का सबसे प्रबल माध्यम है। यदि व्यक्ति चाहे तो वह बड़े-से-बड़े बंधन की उपेक्षा कर सकता है और यदि मन न माने तो छोटे-छोटे संबंध भी व्यक्ति को जकडने के लिए पर्याप्त होते हैं, जैसे कहा भी गया है-"मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्ध-मोक्षयोः।" अर्थात् मन ही व्यक्ति के बंधन व मोक्ष का कारण है।


वस्तुत: मन मानव के व्यक्तित्व का वह ज्ञानात्मक रूप है, जिससे उसके सभी कार्य संचालित होते हैं। मन में मनन करने की शक्ति होती है। यह संकल्प-विकल्प का पूँजीभूत रूप है। मननशीलता के कारण ही मनुष्य को चिंतनशील प्राणी की संज्ञा दी गई है। यदि यह मान लिया जाए कि मन से प्रेरित होकर व्यक्ति सारे कार्य करता है तो यह उक्ति सर्वथा सत्य है कि मन के हारने से बड़े-बड़े संकल्प धराशायी हो जाते हैं और जब तक मन की संकल्प शक्ति नहीं टूटती, तब तक व्यक्ति कठिन-से-कठिन कार्य से भी पराजित नहीं होता है।


जब भी मनुष्य कोई कर्म करता है, तो उसके लिए गंभीरता व विस्तार मन की आसक्ति की मात्रा से होता है। आमतौर पर यह देखा गया है कि जिस कर्म के प्रति व्यक्ति का अधिक रुझान होता है, वह उस कार्य को कष्ट होते हुए भी पूरा करता है। जैसे-जैसे मन की आसक्ति कम होती है, वैसे-वैसे प्रयत्न का व्यापार ढीला पड़ता जाता है। चाँद पर बस्ती बसाने की चाह, ऊँचे-ऊँचे पर्वतों पर चढ़ने की इच्छा आदि मानव-मन की आसक्ति का परिणाम है।


मन ही मानव-सफलता की कुंजी है। किसी भी काम में जब तक मन की भावनापरक आसक्ति होगी, असफल होते हुए भी उस काम की पूर्ति की आशा बनी रहती है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जो मन की शक्ति के परिचायक हैं। शिवाजी द्वारा मुगलों पर विजय, गांधी के सत्य और अहिंसा के प्रति अटूट विश्वास से अंग्रेज़ों का भागना, सरदार पटेल की दृढ़ इच्छा-शक्ति से भारतीय रियासतों का एकीकरण आदि अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं। मन से न हारने पर सफलता मिल ही जाती है।


गुरु नानक ने भी 'मनजीते जगजीत' कहकर मन की संकल्प शक्ति पर प्रकाश डाला है। उनका कहना है कि यदि व्यक्ति ने अपना मन जीत लिया और उसे निरंकुश रूप में इधर - उधर नहीं छोड़ा तो उसने संसार जीत लिया। गीता में भगवान कृष्ण ने दुर्बल अर्जुन को शक्ति का संदेश नहीं दिया, अपितु मन से हारने वाले अर्जुन को मानसिक दृढ़ता का संदेश दिया। महाबली कर्ण भी अंत में मन की दुर्बलता के कारण पराजित हुआ। राष्ट्रकवि दिनकर ने ' रश्मिरथी' में मन की अजेय शक्ति का वर्णन किया है :-


दो वीरों ने किंतु लिया कर आपस में निपटारा।

हुआ जयी राधेय और अर्जुन इस रण में हारा।


मन की संकल्प शक्ति अद्भुत होती है। मन ही अच्छे-बुरे का निर्णय करता है। मन के निर्णय के अनुसार ही मानव शरीर कार्य करता है। मनोबल के बिना मनुष्य निर्जीव ढाँचा बनकर रह जाता है। मुसीबतों को देखकर जीवन-यात्रा से क्लांत नहीं होना चाहिए। हमें मन में कभी भी निराशा की भावना नहीं लानी चाहिए। हिम्मत के बलबूते हम अपने सभी कार्य सिद्ध कर सकते हैं। कहा भी गया है-"हारिए न हिम्मत, बिसारिए न हरिनाम।"

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