महानगरीय जीवन


मानव की तीन मूलभूत आवश्यकताएँ हैं-रोटी, कपड़ा और मकान। जिस देश में इन तीनों आवश्यकताओं की पूर्ति सहज तरीके से हो जाती है, वे देश संपन्न हैं। मकान मानव की प्रमुख जरूरतों में से एक है। यह को स्थायीत्व प्रदान करता है। आज के जीवन में चाहे वह नगर, ग्राम या कस्बा हो, आवास की समस्या गंभीर होती जा रही है। महानगरों में रोज़गार, स्वास्थ्य, शिक्षा, सत्ता आदि का केंद्रीकरण हो गया है, अत: वहाँ चारों दिशाओं से लोग बसने के लिए आ रहे हैं। इस कारण वहाँ आवास की समस्या विकट होती जा रही है। महानगरों में आवास की समस्या क्यों है ? इसके कारण क्या हैं? जब इस समस्या की तह में जाते हैं तो कुछ कारण सामने आते हैं। सबसे पहला कारण है-रोज़गार। महानगरों में अनेक तरह के उद्योग -धंधे, सेवा क्षेत्र, व्यापार आदि का विकास हुआ है। यहाँ शिक्षित-अशिक्षित श्रमिकों की भारी माँग रहती है। इसके अलावा, अब कृषि आधारित व्यवस्था का महत्व काफी कम हो गया है। इस कारण गाँवों व कस्बों से लाखों लोग रोजगार की तलाश में महानगरों की ओर खींचे चले आ रहे हैं। महानगरों से एक सौ पचास किलोमीटर दूर तक के दैनिक यात्रियों की भीड़ ट्रेनों व बसों में देखी जा सकती है।


दूसरा कारण सरकार की अदूरदर्शिता है। सरकार ने देश के समग्र विकास की नीति नहीं बनाई। सरकार ने देश के चंद क्षेत्रों में बड़े उद्योग धंधों को प्रोत्साहन दिया। इन उद्योग-धंधों के साथ बड़ी संख्या में सहायक इकाइयाँ लगीं। सरकार ने इन सहायक इकाइयों को अन्य क्षेत्रों में स्थापित करने में कोई सहयोग नहीं दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि बड़ी संख्या में लोगों का केंद्रण एक जगह ही हो गया। इस कारण बने महानगरों में आवास की समस्या उत्पन्न हो गई। दूसरे, सरकार ने ऐसे क्षेत्रों में आवास संबंधी कोई स्पष्ट नीति भी नहीं बनाई। महानगरों में आवास समस्या के अन्य कारण भी हैं। इन क्षेत्रों में जिन लोगों के पास अतिरिक्त मकान था, आवास सुविधा थी, उन्होंने लोगों को किराए पर जगह दी। जैसे-जैसे महँगाई बढ़ी, इनके परिवार भी बढ़े तो इन्होंने अपने मकानों को खाली कराना प्रारंभ किया। इससे मुकदमेबाजी बढ़ी। किराया-कानून बने , परंतु झगड़े बढ़ते गए। इसका परिणाम यह हुआ कि अब आम व्यक्ति को मकान मिलता ही नहीं। दूसरे, इन मकान मालिकों को यह महसूस हुआ कि वे रिहायशी क्षेत्रों को दुकानों या व्यापारिक प्रतिष्ठानों में बदलकर अधिक लाभ कमा सकते हैं। फलस्वरूप गली-गली में दुकानें खुल गई।


आस-पास के क्षेत्रों से आए लोगों को आवास की व्यवस्था करनी थी, सो उन्होंने फुटपाथों या खाली जगहों पर कब्ज़ा करना शुरू किया। उन्होंने झुग्गी-झोंपड़ी बनानी शुरू कर दी। दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों की झुग्गी बस्ती इसी प्रक्रिया की देन है। वहाँ एक-एक कमरे में पाँच क तर्क दिए से दस लोग रहने लगे। झुग्गी बस्ती बनने पर सरकार का ध्यान गया तो उसने इन लोगों को पच्चीस से तीस गज के प्लॉट या क्वाटर देने प्रारंभ किए। इस नीति का लाभ नेताओं ने उठाया। उन्होंने अपने वोट बैंक पक्के किए तथा जगह-जगह झुग्गियाँ बसानी शुरू कर दीं। फलत: गंदगी का साम्राज्य फैलता गया। ऐसे में बिल्डर कहाँ चूकने वाले थे। उन्होंने भी इस आपाधापी का फायदा उठाया और अवैध रूप से मकान बनाए। इस तरह महानगरों का स्वरूप बिगड़ गया। इस स्वरूप को कैसे सुधारा जाए? इसका सबसे अच्छा उपाय है-महानगरों से रोज़गार का आकर्षण कम करना। इसके लिए सरकार को उद्योगों, व्यापार व सरकारी कार्यालयों को महानगरों से दूर करना होगा। सत्ता का विकेंद्रीकरण करना होगा। दूसरे नगरों, कस्बों, ग्रामों आदि में रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने होंगे। राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए महानगरों के रिहायशी क्षेत्रों से व्यावसायिक गतिविधियाँ बंद करनी होंगी। इन उपायों से महानगरों की आवास-समस्या पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

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