इस दुनिया में अधिकांश लोग ऐसे होते हैं जो अपने काम से काम रखते हैं, उन्हें दूसरे से कोई मतलब नहीं होता। जो दूसरों को अपने सामने लाते हैं तो सिर्फ़ इस रूप में कि वे उनके किस काम आ सकते हैं। मनुष्यों में एक ऐसी श्रेणी भी है जो अपने लिए नहीं जीते। वे दूसरों का कल्याण करते हैं। वे इसके लिए बड़े-से-बड़ा त्याग करने के लिए तत्पर रहते हैं। ऐसे लोग अपने स्वार्थों की तिलांजलि भी दे देते हैं, ऐसे लोगों के सहारे ही दुनिया चल रही है।
परोपकार की भावना प्रकृति के कण-कण में व्याप्त है। सूर्य, चंद्र, वायु निःस्वार्थ भाव से संसार की सेवा में लीन हैं। नदियाँ कभी अपना जल नहीं पीतीं। वृक्ष कभी अपने फल नहीं खाते। बादल भी दूसरों की भलाई के लिए अपने अस्तित्व का बलिदान करते हैं। मैथिलीशरण गुप्त भी कहते हैं :-
निज हेतु बरसता नहीं व्योम से पानी।
हम हों समष्टि के लिए व्यष्टि बलिदान ||
मनुष्य धरती का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। इसमें परोपकार की भावना बहुत पुराने समय से चली आ रही है। शिव, दधीचि, कर्ण, महाराजा हरिश्चंद्र आदि को परोपकार के कारण ही याद किया जाता है। महर्षि दयानंद का उदाहरण किसी से छिपा नहीं है, परंतु आज इस भावना में बदलाव आ गया है। आज जब हम किसी व्यक्ति पर उपकार करना चाहते हैं या करते हैं तो हम उसमें स्वार्थ देखते हैं। दूसरे, हम परोपकार करने के बहाने दूसरे को परजीवी बना रहे होते हैं।
परोपकार की भावना का संबंध समाज से है, समूचे देश से है। गांधी जी ने परोपकार में अपना पूरा जीवन लगा दिया। आचार्य बिनावा भावे भी हर समय परोपकार में लगे रहते थे। ऐसे अनेक व्यक्ति हैं, जिन्होंने अपना पूरा जीवन परोपकार के लिए समर्पित कर दिया। एक अकेला व्यक्ति भी परोपकार कर सकता है। किसी एक को परोपकार करते देखकर समाज के दूसरे लोग साथ आकर जुड़ जाते हैं और एक संगठन बन जाता है। परोपकार को आज हम समाज-सेवा या समाज-कल्याण के नामों से पुकारते हैं।
परोपकार के अंतर्गत वैयक्तिक सेवाकार्य व्यक्ति से संस्था में निवास तक ही सीमित नहीं होना चाहिए, वरन् उसके समाज से पूर्ण रूप से समायोजन तक चलाना चाहिए। चूँकि ये संस्थाएँ समस्याग्रस्त व्यक्ति का पुनर्वास करती हैं। अत: प्रारंभ से लेकर जब तक व्यक्ति के समाज से, कार्यकर्ता से और स्वयं से सामान्य व्यक्ति के रूप में स्वीकृति न मिल जाए, व्यक्ति को ये सेवाएँ प्रदान की जानी चाहिए। वैयक्तिक सेवाकार्य समाज सेवा की एक ऐसी विधि है, जिसमें समस्याग्रस्त व्यक्ति की सामाजिक, मनोवैज्ञानिक व आर्थिक समस्याओं का उद्घाटन करके समाज के साथ समायोजन करने में उसकी सहायता की जाती है।
परहित के लिए हमें पुरानी परंपराओं से प्रेरणा लेनी होगी, तभी परहित किया जा सकता है। हमें स्वार्थ से हटकर कार्य करना चाहिए। भारतीय संस्कृति में परोपकार की भावना इस प्रकार व्यक्त की गई है :-
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चित् दुःख भाग भवेत्॥
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