परनिंदा


प्रशंसा और निंदा करना मनुष्य के स्वभाव में है। जो उसे अच्छा लगता है, उसकी प्रशंसा और जो बुरा लगता है, उसकी निंदा, उसके मुँह से निकल ही जाती है। निंदा एक रहस्यमय कार्य-व्यापार है, जिसे हम समाज से छिपाकर करते हैं; दिल खोलकर करते हैं । निंदक बनने के लिए किसी डिग्री या डिप्लोमा की ज़रूरत नहीं होती। यह तो अभ्यास के द्वारा अपने- आप बढ़ने वाली शक्ति है। इसके लिए सर्वाधिक आवश्यकता है, उस शक्ति की, जिससे गुणों का हाथी दिखाई न दे और जो दोषों की राई को पहाड़ बना सके। निंदा रस समाज में सबसे व्यापक रस है। इसकी विश्व प्रतियोगिता भले ही न हो, निंदा रस के मुकाबले जगह-जगह धड़ल्ले से चालू हैं। चुनाव का परिणाम आते ही निंदकों की जुबान खुल जाती है। गली-मोहल्लों में लगे पोस्टर किसी-न-किसी का भंडाफोड़ करते हैं और ये 'भंडाफोड़' निंदा के विस्फोट के ही शब्दरूप हैं।


निंदा और प्रशंसा के विषयों में तुलना की जाए तो हम पाते हैं कि प्रशंसा के विषय कम हैं, जबकि निंदा के विषय असंख्य जिस चीज़ को आप चाहें निंदा का विषय बना सकते हैं। भगवान के इस रंगीन जगत् से प्रभावित होने वाले बहुत से होंगे, पर इसे अधूरा बताने वाले दार्शनिकों की भी कमी नहीं है। शैतान ने आदम के कान में पहली बार परनिंदा का श्रीगणेश किया था, पर बाद में महिलाओं ने इस पर एकाधिकार कर लिया। 'निंदा रस' के सबसे सजीव नाम हैं-महर्षि नारद। ये सज्जन कालातीत हैं, रामायण से पहले भी थे और महाभारत के बाद भी मिल जाते हैं। आज नारद अकेले नहीं हैं। आज तो प्रत्येक मानव उन्हीं के संप्रदाय में है-परम निंदक। निंदा करने वाले को तटस्थ भाव से निंदा करनी चाहिए। उसे अच्छे-बुरे का विवेक उठाकर ताक़ पर धर देना चाहिए। यदि ऐसा नहीं तो अच्छा और आदर्श निंदक बनना किसी के लिए भी संभव नहीं। अच्छा निंदक बनने का काम भी एक तपस्या है। इसके लिए निंदा की पूरी तकनीक' जान लेना ज़रूरी होगा। सबसे पहले यह जानना चाहिए कि जिसकी निंदा की जा रही है और जिससे निंदा की जा रही है, उनके संबंध कैसे हैं, कहीं वह उसका रिश्तेदार तो नहीं। ऐसे मामले में सावधानी से काम लेना चाहिए। अन्य मामलों में स्वतंत्रता से सब कुछ कहा जा सकता है।


इसके अलावा, निंदा के स्थूल रूप की अपेक्षा निंदा का सूक्ष्म रूप ग्रहण करना चाहिए। किसी को साफ़-साफ़ गालियाँ देने की अपेक्षा 'किंतु', 'परंतु' में बात करनी चाहिए-'वे', आदमी देवता हैं, किंतु बेवकूफ हैं। इसके अतिरिक्त, निंदा करते वक्त अपनी बात को विश्वसनीय बनाने के लिए कुछ मुहावरों का प्रयोग करना चाहिए; जैसे- 'कसम तुम्हारी, झूठ बोलूँ तो नरक में जाऊँ' आदि-आदि। निंदा अप्रस्तुत की करनी चाहिए, ताकि यदि अप्रस्तुत प्रस्तुत हो जाए तो निंदा-पुराण बंद।


किसी की निंदा किसी के प्रति प्रेम का प्रमाण भी है। भगवान के प्रति प्रेम उसकी स्तुतियाँ करके भी प्रकट किया जा सकता है, रावण या कंस को गालियाँ सुनाकर भी। तटस्थ को भी इसमें मजा आता है। प्रेमी अपनी प्रेमिका की प्रशंसा में सभी 'रूपसियों को पनिहारिन सिद्ध कर देता है और प्रेमिका मान जाती है। अच्छा कम्यूनिस्ट होने के लिए ज़रूरी है कि इंग्लैड-अमेरिका जैसे देशों को सदैव साम्राज्यवादी घोषित करें। सारे कवि नायिकाओं के साथ चाँद की तुलना करें। यहाँ तक तो बुरा नहीं लगता, पर वे इससे आगे बढ़कर चाँद को नीचा भी दिखाते हैं। गोस्वामी जैसे कवियों ने भी निंदा के लिए आकाश-पाताल नाप डाले हैं :-


जन्म सिंधु पुनि बन्धु बिस, दिनहि मलिन सकलंक।

सिय मुख समता पाव किमि, चन्द बापुरो रंक॥


निंदा रस मनोरंजन का सस्ता, विश्वसनीय, सुरक्षित व सर्वोत्तम साधन है। आनंद पाने का इससे अचूक नुस्खा ढूँढ़े नहीं मिलेगा। निंदक के बिना जग सूना है। प्रशंसा करने वाले को भाँड़ कहा जाता है, परंतु निंदा करने वाले को महाकवि। यह रस लोकरंजक भी है, लोकरक्षक भी। यह प्रेम से अधिक विस्तृत, वेदना से अधिक मधुर है। निंदा करने वाला कभी पछताता नहीं है। यह मनुष्य के अहं की ढाल है तो दूसरे के अहं के लिए तलवार

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