जिस देश भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है, उसी देश के कृषकों की दुर्दशा की कहानी कहना हास्यास्पद-सा लगता है। पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरणसिंह ने कहा था कि देश की प्रगति का रास्ता गाँवों से होकर जाता है अर्थात् कृषकों और मजदूरों की मेहनत पर देश की उन्नति निर्भर है। आश्चर्य है कि देश की प्रगति में अपनी अहं भूमिका निभाने वाला किसान स्वयं विपन्न है। जो मज़दूर दूसरों के लिए महल खड़े करता है, हर प्रकार की आपदाएँ सहन करता है, वही स्वयं फुटपाथ पर सोता है। यही विडंबना है भारत के कृषक की। कृषक अन्न पैदा करता है और उसकी मेहनत का उसे समुचित मूल्य नहीं मिल पाता। वही अन्न व्यापारी के हाथ में आने पर विज्ञापनों के सहयोग से कृषक से अधिक मुनाफ़ा कमाता है। देखते-ही-देखते वह धनी हो जाता है और सम्मानित जीवन जीने लगता है। दूसरी ओर दिन-रात मेहनत करने वाले कृषक के लिए सम्मान तो दूर दो वक्त की रोटी के लिए भी जद्दोजहद करनी पड़ती है। यही उसकी दुर्दशा की व्यथा-कथा है। इस धरती पर कृषक ही ऐसा है जो सभी प्रकार की आपदाओं को सहन करने की सामर्थ्य रखता है। उसकी गंभीरता और सहिष्णुता ऐसी है कि बड़ी-बड़ी आपदाओं को सहन करते हुए वह अपने कार्य में जुटा रहता है। इस दया के पात्र पर किसी को दया नहीं आती। तपतपाती धूप और कड़कड़ाती ठंड तथा वर्षा के वेग में स्प आदि की चिंता किए बिना दिन-रात परिश्रम करके लहलहाती फसल को देखकर प्रसन्न होता है। कल्पनाओं के सागर में डूब जाता है। इस बार फसल आने पर ठंड से बचने के लिए रजाई, कपड़े, जूते ले लूँगा; इस बार ठंड में सिकुड़ना नहीं पड़ेगा। काम करते हुए प्रभु को स्मरण करता है। उस विधाता को भी उस पर दया नहीं आती। ऊपर से उसे ही अपना सर्वप्रिय बताता है और उस पर ही कहर बरपाता है। प्रकृति की मार पड़ती है। कभी अधिक वर्षा, कभी सूखा तो कभी कोहरा। संपूर्ण लहलहाती फसल नष्ट हो जाती है। लंबे समय की मेहनत और सारी कल्पना धरी-की-धरी रह जाती है। इतने पर भी सब सहन करके वह आगामी वर्ष की प्रतीक्षा में फिर जुट जाता है। गंभीर बना कृषक विधाता को भी कोई दोष नहीं देता, अपने भाग्य को ही कोसकर रह जाता है। इसकी गंभीरता और धैर्य-सहिष्णुता की तुलना किसी से नहीं की जा सकती।
भारतीय कृषक मेहनत करना जानता है। वह छल-कपट से दूर है, सरल है, ईमानदार है। आधुनिक प्रगति में मात्र कृषक ही विश्वसनीय और ईमानदार रह गया है। अभी वह अशिक्षित है, उसका संपूर्ण जीवन साहूकारों के यहाँ गिरवी रखा रहता है। उनकी दुर्दशा के बारे में कवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने कहा है :-
पहले पहला खाता देखो, दिए गए थे बीस।
होकर के दो बार सवाए, हुए सवा इकतीस॥
प्रेमचंद्र ने अपनी रचनाओं में कृषकों को प्रमुखता से स्थान दिया है। प्रेमचंद के अनुसार सहायता के लिए साहूकार की शरण में गए कृषक की कई पीढ़ियाँ साहूकर के ऋण से मुक्त नहीं हो पाईं। इस कारण कृषक जहाँ था, आज भी वहीं है। वह अशिक्षित होने के कारण संपूर्ण जीवन को खेती में झोंक देता है। इसके कारण उसके बच्चे भी शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। विवाह आदि उत्सवों में कर्ज़ लेकर खर्च करता है। फिर वह बीज, खाद तथा अन्य उपकरणों के लिए कर्ज पर निर्भर रहता है और उसकी कमाई का मूल्य भी दूसरे निर्धारित करते हैं । इस प्रकार वह सर्वथा परमुखापेक्षी है।
आधुनिक कृषक में परिवर्तन आया है। वह खेती के साथ और भी व्यवसाय करने लगा है। पहले कृषक वर्ष में चार महीने से अधिक खाली रहता था। कोई काम न होने पर अगली फसल की प्रतीक्षा करता रहता था। आज सरकारी योजनाओं का लाभ उठाकर उन्नत बीज का उपयोग करता है। साहूकारों की शोषण-प्रवृत्ति से मुक्त है। नई-नई तकनीकों का भी सहारा लेने लगा है। कृषक शिक्षित भी होने लगा है। वह दूसरे क्षेत्रों में भी पैर पसारने लगा है। वह पूर्णतः कृषि पर निर्भर नहीं रह गया है। जो कृषक शिक्षित हुए हैं, सरकारी योजनाओं का लाभ उठाते हैं, वे संपन्न हैं। हालाँकि आज भी ऐसे बहुत कृषक हैं जो सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाते। वे आज भी शोषण के शिकार हैं। इतना परिवर्तन होते हुए कृषक परंपराओं का पुजारी है, ईश्वर के प्रति आस्थावान है। उच्च आदर्श मूल्यों का वह आज भी पालन करता है। यह कहा जाए कि संपूर्ण भारतीयता कृषकों में ही शेष रह गई है तो अतिशयोक्ति न होगी।
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