उपभोक्ता शोषण


विषमता शोषण की जननी है। समाज में जितनी विषमता होगी, सामान्यतया शोषण उतना ही अधिक होगा। चूँकि हमारे देश में सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक व सांस्कृतिक असमानताएँ अधिक हैं, जिसकी वजह से एक व्यक्ति एक स्थान पर शोषक और दूसरे स्थान पर शोषित होता है। चूँकि यहाँ बात उपभोक्ता संरक्षण की हो रही है तो प्रथम प्रश्न यह है कि उपभोक्ता की परिभाषा क्या है या उपभोक्ता किसे कहते हैं ? सामान्यतः व्यक्तियों के समूह को उपभोक्ता कहा जाता है जो सीधे तौर पर वस्तुओं और सेवाओं का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार सभी व्यक्ति किसी-न-किसी रूप में शोषण के शिकार अवश्य होते हैं।


हमारे देश में ऐसे लोगों की भीड़ है जो गरीब, अशिक्षित तथा कमजोर है तथा ग्रामीण-शहरी गंदी बस्तियों व फुटपाथ पर रहती है, जो दुनिया के सबसे बड़े प्रजातांत्रिक देश की दीर्घकालीन योजनाओं से वंचित है, इसे आधुनिक सफेदपोशों, व्यापारियों तथा औद्योगिक समूहों ने मिलकर बाँट लिया है। सही मायने में शोषण इन्हीं की देन है।


उपभोक्ता-शोषण का तात्पर्य केवल उत्पादक व व्यापारियों द्वारा किए गए शोषण से ही लिया जाता है, परंतु उपभोक्ता शब्द के दायरे में वस्तुएँ व सेवाएँ-दोनों का उपभोग शामिल है। सेवा क्षेत्र के अंतर्गत डॉक्टर, शिक्षक, प्रशासनिक अधिकारी, वकील आदि आते हैं। इन्होंने उपभोक्ता-शोषण के जो कीर्तिमान बनाए हैं, वे 'गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड्स' में दर्ज कराने लायक हैं। एक अफसर अपनी सात पीढ़ियों के चैन से रहने के लिए सरकारी पैसे निगल जाता है, तो शिक्षकों को ट्यूशन से फुर्सत नहीं मिलती। डॉक्टर प्राइवेट सर्विस को ही जनसेवा मानते हैं तो वकीलों को झूठे मुकदमों में आनंद मिलता है। इसी तरह व्यापारी भी कम मात्रा, मिलावट, जमाखोरी, कृत्रिम मूल्य-वृद्धि आदि द्वारा उपभोक्ताओं की खाल उतारने पर लगा रहता है। मिलावट करने से न जाने कितनी जाने चली जाती हैं, इस बात का लक्ष्मी के पुजारियों को कोई गम नहीं।


मिलावट करने वाला आर्थिक अपराधी होता है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि अभी तक इन आर्थिक अपराधियों को समाज में अपराधी होने की पहचान नहीं मिली है। एकाध केस बनता है, उसे भी अफसर पेट पूजा से रफा-दफा कर देते हैं। करोड़ों-अरबों का घोटाला करने वाले मंचों पर माला पहनते हैं तथा समाजसेवक का दर्जा पाते हैं। आज व्यापारी वर्ग ग्राहक को भगवान न समझकर लाभ को ही अपना इष्ट देवता मानता है। मिलावट, कम तोल, अधिक दाम आदि उस इष्ट देवता की पूजा विधियाँ हैं।


अब उपभोक्ता संरक्षण की बात उठने लगी है। असंगठित तथा दिशाहीन उपभोक्ताओं का शोषण जमकर हो रहा है। उनके हितों की सुरक्षा के लिए अनेक कानून पास किए गए हैं-माप व बाट मानक अधिनियम, खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम आदि, लेकिन क्या वे उपभोक्ता को शीघ्र ही न्याय दिलाने में सहायक सिद्ध हुए? वास्तव में ये दंडात्मक नियम हैं और न्याय प्रक्रिया इतनी लंबी तथा थका देने वाली है कि उपभोक्ता यह सब सहन नहीं कर सकता। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 पास हुआ, परंतु उसके क्रियान्वयन में देरी की जाती है। सफेदपोश कानून के छेदों को ढूँढ़ लेते हैं।


उपभोक्ता को अपने बचाव के लिए जागरूक होना पड़ेगा। देश में सैकड़ों उपभोक्ता संगठन हैं, परंतु इनका कार्यक्षेत्र अभी तक महानगरों व नगरों तक ही सीमित है, आज जरूरत है कि ऐसे संगठन ग्राम स्तर तक अपना कार्य करें। इनके अलावा, रेडियो, दूरदर्शन, साथ वहाँ हां से संबंधित इस फ्रेश ही ले सक समाचार-पत्र आदि के माध्यम से उपभोक्ताओं को जागृत किया जा सकता है। यह कार्य सरकारी संगठन नहीं कर सकते। युवा क्षेत्र में प्रभावी भूमिका निभा सकते हैं।





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