मानव ने ज्यों-ज्यों सभ्यता की ओर कदम बढ़ाया, त्यों-त्यों उसकी आवश्यकताओं में वृद्धि होती गई। इस भौतिकवादी युग में उनकी स्वार्थ-वृत्ति बढ़ी और अपनी ज़रूरतों के लिए वह प्रकृति के कार्य में हस्तक्षेप करने लगा, प्रकृति के साथ छेडछाड़ करने लगा। इससे प्रकृति कुपित हुई, जिससे मनुष्य को विभिन्न आपदाओं से दो-चार होना पड़ा। सूखा, बाढ़, असमय वर्षा, सर्दी-गर्मी का अचानक बढ़ना-घटना आदि ऐसी आपदाएँ हैं। अतिवृष्टि के कारण जब पानी नदियों, झीलों, तालावों और जलाशयों की सीमा लाँघकर खेतों और रिहायसी इलाकों में प्रवेश करता है, तब इसे बाढ़ की संज्ञा दी जाती है। बाढ़ वह विभीषिका है, जिससे जन-धन की बड़ी हानि होती है।
अगस्त महीने के आखिरी दिन अचानक आकाश में काले-काले बादल छा गए। मौसम सुहावना हो गया। लोगों को गर्मी से राहत तो मिली, पर वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि इस राहत के पीछे कोई विभीषिका भी छिपी है। वे खुशनुमे मौसम का आनंद उठा रहे थे कि तेज़ वर्षा शुरू हो गई और लगातार बढ़ती गई। शुरू-शुरू में वर्षा बहुत अच्छी लग रही थी। यह तन-मन को राहत पहुँचा रही थी, पर जब वर्षा ने रुकने का नाम नहीं लिया तो लोगों के माथे पर चिंता की लकीरें उभरने लगीं। नालियों का पानी अपनी सीमा लाँघकर सड़कों पर आ गया। देखते-ही-देखते सड़कें डूबने लगीं और यातायात ठप्प हो गया। निरंतर वर्षा से नालों में भी पानी बढ़ने-चढ़ने लगा। उनके आसपास स्थित गाँवों में खतरा बढ़ गया। किसानों ने अपने डूबते खेतों को बचाने के लिए दूसरा नाला काट दिया, ताकि पानी निकल जाए, पर इससे स्थिति और भी भयावह हो गई, क्योंकि अब उस नाले से भी पानी खेत से होकर गाँवों की ओर आने लगा।
शहर की सड़कें पानी में डूब गईं। तिलक नगर के आस-पास के निचले इलाके जल-प्लावित हो गए। लोगों के मकानों में पानी प्रविष्ट कर चुका था। वे विभिन्न साधनों पर अपने सामान रखकर सुरक्षित स्थानों की ओर जा रहे थे। जिन घरों में बाढ़ का पानी प्रवेश नहीं कर पाया था, उनमें रहने वाले यह नहीं निर्णय कर पा रहे थे कि वे यहाँ रुकें या जाएँ। वे न घर में रुक पा रहे थे और न अपना सामान उठाकर बाहर जा पा रहे थे। नजफ़गढ़ की ओर तो बाढ़ की स्थिति और भी खराब थी। ग्रामीण क्षेत्रों में निचले स्थानों, बाजारों की स्थिति चिंताजनक थी। वहाँ सब कुछ पानी में डूबा-सा प्रतीत होता था । दुकानां. मकानों, गोदामों में तीन-तीन, चार-चार फुट पानी भर गया था। अब इस पानी में ठहराव आ गया था। इस कारण सर्वत्र बदबू फैली हुई थी। लगातार पानी भरे रहने से कच्चे तथा कमज़ोर मकान गिरने लगे। वहाँ पाँच - छह सौ से अधिक मकान गिर गए तथा कई सौ पानी में डूब गए। इन गाँवों का संपर्क अन्य गाँवों से टूट चुका था। उनकी रोजी-रोटी का साधन नष्ट हो चुका था। वे बेकार हो गए थे।
बाढ़ की इस विभीषिका में मानवता की मदद के लिए स्वयंसेवी संस्थाओं और अन्य संस्थाओं की ओर से मददगार हाथ आगे आने लगे। भोजन के पैकेट लोगों तक पहुँचाए जाने लगे। उनके लिए कपड़े, दवाइयाँ तथा अन्य आवश्यक वस्तुएँ लाई जाने लगीं। नजफ़गढ़ में खुले राहत केंद्र से लोगों को सहायता मिलती थी। इस समय मानवता की भलाई के लिए किए जा रहे कार्य में लोगों, विशेषकर युवाओं का उत्साह देखते ही बनता था। बाहर से राहत सामग्री लेकर आने वाले ट्रकों एवं वाहनों से सामान उतारने, उन्हें बाढ़-पीड़ितों में उचित ढंग से बँटवाने, छीना-झपटी से बचाने जैसे काम युवाओं ने जी-जान से किए। यद्यपि यह मदद उनकी आवश्यकता से काफी कम होती थी, पर डूबते को तिनके का सहारा काफी होता है। सभी को रखने या संचय करने की बजाय एक-दूसरे के भूख की चिंता थी। बाढ़ की इस विभीषिका की मार और उसके आतंक का भय लोगों के चेहरे पर स्पष्ट दिख रहा था, पर जैसे राहत सामग्री भरा ट्रक आता, उनके चेहरों पर खुशी का संचार हो उठता था। बाढ़ पीड़ितों की मदद में सरकारी प्रयास भी पीछे न थे, पर यह कार्य विलंब से शुरू हुआ। दस दिनों तक रही बाढ़ की इस विभीषिका ने अपना दुष्प्रभाव बीमारियों के रूप में भी छोड़ा। लोगों को अस्पतालों की शरण लेनी पड़ी। सरकार ने चल-चिकित्सालय की मदद से बहुतों का इलाज वहीं किया। पानी उतरने पर जिन लोगों के मकान ढह गए थे, वहाँ टेंट की व्यवस्था की गई। साफ़ पानी की सप्लाई टैंकरों द्वारा की जाने लगी। दवाइयों का नियमित वितरण किया जाने लगा। लोगों तथा सरकार के सामूहिक प्रयास से उनकी जिंदगी की गाड़ी फिर से पटरी पर लौटने लगी। बाढ़ जैसी विभीषिकाओं से निपटने के लिए प्रबंधन किया जाना आवश्यक होता है। प्राकृतिक आपदाएँ मनुष्य को कुछ सोचने के पूर्व विवश कर देती हैं और कई संदेश छोड़ जाती हैं।
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