वर्तमान शिक्षा और भविष्य


आज हर महत्वाकांक्षी मनुष्य के लिए पहली चिंता का विषय है-शिक्षा, उन्नत शिक्षा ऐसी शिक्षा जो हमें आत्म- निर्भर बना सके: रोजगार दिला सके; प्रतिस्पर्धा हेतु तैयार कर सके; समाजोपयोगी नागरिक बना सके आदि। समाज में वर्तमान की शिक्षा की दशा देखते हुए लोगों का चिंतित होना स्वाभाविक है। शिक्षा की चिंता इसलिए नहीं है कि यह 'सा विद्या या विमुक्तये' वाला अपना स्वरूप खो चुकी है, बल्कि चिंता इस बात की है कि शिक्षा को अर्थप्राप्ति का साधन मात्र मान लिया गया है। आज शिक्षा के नाम पर अँधेरे में तीर छोड़ा जा रहा है। कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं है। इस असंगति के होते हुए भी हम निरुद्देश्य इस शिक्षा प्रणाली को ढोते चले जा रहे हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि युवकों में असंतोष की भावना घर करती जा रही है। समाज में पनपते असंतोष के कारणों को एक-दूसरे पर मढ़ा जा रहा है। आज की शिक्षा-प्रणाली से प्राप्त ज्ञान-संचय फलहीन वृक्ष के समान है या उस विशाल सरोवर के समान है, जो एक भी प्यासे की प्यास नहीं बुझा सकता। वैसे तो आज की शिक्षा-प्रणाली में ज्ञानार्जन करना कठिन है। यदि किसी प्रकार ज्ञानार्जन कर भी लिया जाए तो उसे सँभालकर रखना कठिन है। आज सर्वत्र भ्रष्टाचार, गुंडागर्दी, हिंसा उन लोगों में अधिक है, जो उच्च शिक्षा प्राप्त हैं। उनकी विकृत मानसिकता का कारण आज की शिक्षा प्रणाली ही हो सकती है। आज शिक्षा का उद्देश्य किसी प्रकार धन कमाना रह गया है। अतः शिक्षा -प्रणाली में जीवन-मूल्यों का स्थान नहीं है, न उन मूल्यों को महत्व दिया जाता है। यही कारण है कि आज की शिक्षा-प्रणाली इंजीनियर बना सकती है, डॉक्टर बना सकती है, विकृत मानसिकता वाले राजनेता बना सकती है तिकड़मी बना सकती है, किंतु मानव को महामानव नहीं बना सकती। विवेकानंद. दयानंद, चाणक्य, शिवाजी, भरत, चंद्रगुप्त नहीं बना सकती। आँख उठाकर देखा जाए तो इतने लंबे कालखंड में आज की शिक्षा प्रणाली कोई महामानव नहीं बना सकी, जिसे महामानव या महानायक कहा जा सके। संस्कारों को बढ़ाने के लिए, व्यक्ति को महामानव के रूप में ढालने के लिए आत्म- अनुशासन को जीवन का अंग बनाने के लिए, उदारता को जीवन में लाने के लिए आज की शिक्षा प्रणाली द्वारा किंचित भी प्रयास नहीं किया जाता। यही कारण है कि प्राथमिक स्तर से उच्च स्तर तक के विद्यार्थियों के व्यवहार में विकृतियाँ दिखाई देती हैं। ये विद्यार्थी आगे चलकर जब शिक्षक डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, अधिवक्ता और राजनेता बनेंगे, तो परिणाम क्या होगा. उसकी सहज ही परिकल्पना की जा सकती है। अत: यदि शिक्षा उच्च आदर्शों से युक्त नहीं है तो वह धनिकों, उद्दंडों, राजनेताओं की चेरी बनकर रह जाती है। धनिकों के पैरों में गिड़गिड़ाती दिखाई देती है। मूल्यहीन शिक्षा होने के कारण बुद्धि-संपन्न, विलक्षण प्रतिभा के धनी होते हुए भी अनेक वैज्ञानिक मात्र विनाश हेतु आयुधों के अनुसंधान और निर्माण कार्य में लगे रहते हैं। ऐसा कहा जाता है कि विश्व के अधिकांश प्रतिभा के धनी, उच्च शिक्षा-प्राप्त वैज्ञानिक मात्र संहार हेतु उपायों की खोज में लगे हैं इस प्रकार आज की शिक्षा प्रणाली में व्यक्ति को दी गई शिक्षा 'बंदर के हाथ में दी गई तलवार' सिद्ध हो रही है। इसलिए यह कहना उचित है कि यदि मनुष्य के व्यक्तित्व में शालीनता का समावेश न हो तो शिक्षा से कोई लाभ नहीं है। आज की शिक्षा प्रणाली शालीनता से कोसों दूर केवल तिकड़म सिखा रही है। आज की शिक्षा विशेष रूप से पेटू हो गई है या यूँ कहें कि इसने मनुष्य को पेटू बना दिया है, स्वार्थी बना दिया है। जीविका तक सीमित कर दिया है। वर्णमाला और जीविका का सूत्र रटाकर उसकी बुद्धि को संकुचित कर दिया है। आज की शिक्षा शिवाजी नहीं बना सकती, शंकराचार्य नहीं बना सकती। हाँ, आज की शिक्षा पेटू बना सकती है। साज-सज्जा की सामग्री कैसे इकट्ठी की जाए? इस तिकड़म का पाठ पढ़ा सकती है, जो सर्वत्र दिखाई देती है। लाल बहादुर शास्त्री और कई बार मंत्री रह चुके गुलजारी लाल नंदा तथा अन्य ऐसे भी सच्चरित्र व्यक्ति हुए, जो अपनी कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी से अपने रहने के लिए साधन संपन्न घर भी न जुटा सके, किंतु आज चतुर्थ श्रेणी का सामान्य कर्मचारी संपन्न है, जिसे देखकर अच्छे-अच्छे दाँतों तले अँगुली दबाकर रह जाते हैं। ऐसा पाठ पढ़ाने में आज की शिक्षा संपन्न और सक्षम है, किंतु जीवन-निर्वाह के लिए साधन जुटाना ही पर्याप्त नहीं है। आत्मिक विकास के बिना जीवन-यात्रा अधूरी है। यह पाश्चात्य और आधुनिकीकरण के नाम पर दूसरों का अंधानुकरण है, जिसका प्रभाव शिक्षा-प्रणाली में आ गया है। संस्कारहीन, पेटू शिक्षा-प्रणली को मानवता का विरोधी कहा जा सकता है या पशुवत् प्रवृत्ति का पर्याय कहा जा सकता है, जिसे राष्ट्रकवि मैथिलीशरण की पंक्ति से समझा जा सकता है


यह पशुप्रवृत्ति है जो आप आप ही चरे,

वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिए मरे।



आज की शिक्षा ने मनुष्य को परमुखापेक्षी बना दिया है या उच्छृंखल बना दिया है. जिसमें आदर्श-मूल्यों का कोई स्थान नहीं है। इसका परिणाम यह हुआ है कि आज परस्पर स्नेह और विश्वास का अभाव है। पारिवारिक संबंधों की कड़ी ढीली पड़ती जा रही है। अनुशासन नाम-मात्र का रह गया है। शिक्षा मनुष्य पर नियंत्रण नहीं कर पा रही है। आज की शिक्षा ने कुतर्क करने के तरीके समझाकर जीवन जीने के नए उद्देश्य और मूल्य स्थापित किए हैं, जिसमें भय है, अविश्वास है. एकाकीपन है, मन अशांत है। धीरे-धीरे विवश मनुष्य ऐसे ही जीना सीख गया है । आज की शिक्षा में शिक्षित मनुष्य विनम्र होने का प्रदर्शन तो करता है, किंतु ठीक उसी प्रकार करता है, जैसे चुनाव के समय नेतागण और शिकार के समय बगुले।

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