जनसंख्या में स्त्रियों का घटता अनुपात


स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश में विकास की गति तेज़ हुई। इसका असर चहुँओर देखने को मिलता है। देश में चिकित्सीय सेवाओं में सुधार और वृद्धि हुई, जिससे देश की जनसंख्या बढ़ती गई। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 121 करोड़ के आँकड़े को पार कर चुकी है। इसमें निरंतर वृद्धि के कारण जनसंख्या के मामले में हम विश्व में दूसरे स्थान पर हो गए हैं। भारत की जनसंख्या के प्रति चिंताजनक बात यह है कि यहाँ पुरुषों की जनसंख्या तो बढ़ी है, परंतु स्त्रियों की जनसंख्या पुरुषों की तुलना में घटी है। यहाँ स्त्रियों का अनुपात घटा है, जिससे सामाजिक असंतुलन उत्पन्न हो गया है। कुछ राज्यों में ऐसी भयावह स्थिति उत्पन्न हो गई है कि लड़कों के विवाह के लिए लड़कियों की कमी होती जा रही है, जिससे उन्हें दूसरे राज्यों का मुँह देखने को विवश होना पड़ रहा है। हरियाणा, पंजाब-जैसे राज्यों में यह स्थिति और भी बदतर है।


जनसंख्या में स्त्रियों के घटते अनुपात की समस्या एक दिन में अचानक उत्पन्न नहीं हुई। लोगों के पास पैसा बढ़ने के साथ ही उनकी सोच में भी बदलाव आता गया। रूढ़िवादी सोच, दहेज की समस्या तथा लड़कों की उच्च स्थिति के कारण परिवार में लड़कियों को बोझ समझा जाने लगा। धीरे-धीरे ऐसी सोच बनती गई कि परिवार लड़कियाँ जन्म ही न लें। लोग लड़कियों के प्रति गलत धारणा बना बैठे और उनके जन्म को रोकने के लिए गर्भवती महिलाओं का अल्ट्रासाउंड द्वारा भ्रूण-परीक्षण करवाने लगे। यदि गर्भ में पल रही संतान लड़की होती तो उससे छुटकारा पाने के लिए भ्रूण-हत्या करवाने लगे। डॉक्टर भी अपने पेशे की पवित्रता की परवाह न करके मनमाना पैसा वसूलते हुए ऐसा गैर-कानूनी कार्य करके उनका साथ देने लगे। इससे लोगों को लड़कियों से छुटकारा मिल तो जाता, पर वे यह न सोच सके कि आखिर उनके बेटों के विवाह के लिए लड़कियाँ कहाँ से आएँगी। उनकी यह अदूरदर्शी सोच समाज पर भारी पड़ने लगी और लड़कियों की संख्या इतनी कम होती गई कि समाज का ताना-बाना प्रभावित होने लगा। अपने इस अनैतिक कार्य को छिपाने का लोग हरसंभव प्रयास करते थे, पर एक दिन सच्चाई समाज के सम्मुख स्वयंमेव आ गई।


स्त्रियों की घटती संख्या का प्रभाव तात्कालिक न होकर दीर्घकालिक होता है, इसलिए यह लोगों की निगाह में देर से आ सका। एक-डेढ़ दशक बाद जब तक समाज को इसका पता चला, तब तक बहुत विलंब हो चुका थी। दिनों-दिन स्त्रियों के घटते अनुपात के कारण अब समाज और सरकार दोनों की आँखें खुलीं। अपनी स्वार्थी प्रवृत्ति के कारण लोगों ने इस पर ध्यान देना उचित नहीं समझा, पर सरकार ने ठोस कदम उठाते हुए विभिन्न संचार माध्यमों से जन-जागरूकता फैलाने का निश्चय किया। उसने अवैध रूप से लिंग-परीक्षण करने वाले डॉक्टरों पर लगाम कसा और विभिन्न लाभकारी योजनाओं को चलाकर कन्या को जन्म लेने देने के लिए जन-मानस को प्रोत्साहित किया। सरकार ने लड़कियों की देख-रेख, शिक्षा, विवाह आदि के लिए आर्थिक मदद प्रदान करके लड़कियों की संख्या बढ़ाने का प्रयास किया। यहाँ एक बात ध्यातव्य है कि केवल सरकार के प्रयास से ही स्थिति में पूर्ण बदलाव नहीं आ पाएगा। इसके लिए लोगों को अपनी सोच में बदलाव लाना होगा। उन्हें बेटा-बेटी के अंतर को मिटाना होगा तथा बेटियों को बेटों के समान ही मानना होगा। आज प्रत्येक क्षेत्र में स्त्रियाँ-पुरुषों के समान ही दक्षतापूर्वक कार्य कर रही हैं। ऐसे में लोगों को चाहिए कि वे पुत्र-मोह त्यागकर ऐसी स्वस्थ सोच बनाएँ, जो लड़कियों के जन्म लेने में बाधक न बने।


आजकल संतोष की बात यह है कि सरकार द्वारा उठाए गए ठोस कदमों एवं लोगों की सोच में आए सकारात्मक बदलाव के कारण स्थिति में सुधार का सुखद परिणाम दिखने लगा है। यह सुधार अभी तो आटे में नमक के बराबर ही है, जिसके लिए बहुत कुछ किया जाना शेष है। इसके लिए सरकार और जन-समुदाय को उदारतापूर्वक आगे आना होगा। ईश्वर लोगों को ऐसी सुबुद्धि दे कि वे लड़के-लड़की में कोई भेद न करें। लोग मनसा, वाचा और कर्मणा-तीनों से ही इस असंतुलन को कम करने में अपना सहयोग दें, ताकि सामाजिक ताना-बाना पूर्ववत् बना रहे।

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