स्वास्थ्य और व्यायाम


प्रायः भौतिक जगत् में भौतिक सोच को अधिक महत्व दिया जाता है। भौतिकता की चकाचौंध में गरीबी को सबसे बड़ा अभिशाप कहा जाता है, किंतु मेरे विचार से जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है-अस्वस्थ शरीर और परतंत्र असंभावित जीवन।


अस्वस्थ शरीर अपने, समाज और देश के लिए बोझ होता है। नित्य घुट-घुटकर मरता है। दूसरों की बात तो अलग, अपने लोग भी पास नहीं फटकते। सामाजिक अपमान, उपहास घर से लेकर बाहर तक उसे थोड़ी देर के लिए भी चैन से नहीं रहने देते। यद्यपि गरीबी अभिशाप है, किंतु स्वस्थ शरीर के रहते गरीबी के अभिशाप से मुक्त होने का मनुष्य प्रयास करता है ,उसमें कार्य करने का उत्साह होता है। वहीं अस्वस्थ शरीर मिट्टी के लोथड़े से भी घिनौना होता है। अस्वस्थ शरीर की कल्पना मात्र से मन सिहर उठता है। अतः स्वास्थ्य के लिए सर्वथा प्रयास करना अपेक्षित है। व्यायाम करणीय है। किसी राष्ट्र की उन्नति मनुष्य की क्षमता पर निर्भर होती है। जिस राष्ट्र के मनुष्य जितने स्वस्थ होंगे, उनमें कार्य करने की जितनी बलवती इच्छा और क्षमता होगी, वह राष्ट्र उतना ही उन्नत होगा। मानव- शरीर केवल सुख भोगने के लिए ही नहीं है, अपितु राष्ट्र को भी मनुष्य से अपेक्षाएँ हैं। जिस देश के मनुष्य जितने कर्मठ होंगे, उत्साही होंगे, वह राष्ट्र उतना उन्नत होकर, अपने स्वाभिमान को सुरक्षित रख सकता है। अन्यथा दूसरे लोग उस देश की मर्यादा पर हाथ डालने के लिए तत्पर रहते हैं। अतः स्वस्थ मनुष्य ही देश की मर्यादा को सुरक्षित रख सकते हैं। अस्वस्थ शरीर राष्ट्र के लिए कलंक होता है। मात्र भौतिक संपदा हासिल करने से कोई सुख का अनुभव नहीं कर सकता, जब तक कि उसके पास शक्ति न हो। राष्ट्रकवि दिनकर जी ने कहा है


क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो।

उसको क्या जो विनीत विषहीन और सरल हो ॥


अतः कविवर की इस पंक्ति से प्रेरणा मिलती है कि स्वस्थ और बलशाली बनने के लिए भौतिक सुख की आपा-धापी से समय निकालकर नियमित व्यायाम करना अपेक्षित है, नहीं तो ढुल-मुल अस्वस्थ शरीर के होने पर किसी क्रूर भेड़िए की जिस दिन आँखें उठ जाएँगी, सब कुछ छीनकर ले जाएगा। इसलिए राष्ट्र को भीड़ नहीं, स्फूर्तिवान शक्तिशाली मनुष्य चाहिए। जीवन के संपूर्ण कार्य पुरुषार्थ-धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष सबका मूल आधार स्वस्थ शरीर है। लुंज-पुंज शरीर से मनुष्य किसी भी क्षेत्र में उन्नति नहीं कर सकता। ऐसा शरीर तो प्रभु-स्मरण से भी वंचित रह जाता है। स्वास्थ्य के महत्व को समझने वाले ऋषियों ने भी प्रभु-भक्ति से अधिक स्वास्थ्य को महत्व दिया है, क्योंकि इसके अभाव में तो कोई कार्य संभव नहीं है। स्वामी विवेकानंद का स्वास्थ्य ही था, स्फूर्ति ही थी, आत्मविश्वास ही था, जो विदेश में जाकर ललकारने में समर्थ हुए। आत्मविश्वास, स्फूर्ति, पौरुष तभी साथ देते हैं, जब स्वयं बलिष्ठ हों। छत्रपति अफ़जल खाँ को दबोचने में समर्थ हुए, स्वामी दयानंद अपने विरोधियों के सामने नहीं झुके, राणा प्रताप जंगल में रहते हुए हर चुनौती से लोहा लेते रहे। यह सब स्वस्थ शरीर का आत्मबल ही था। यदि मनुष्य में इच्छा-शक्ति है, उत्साह है, विवेक है, किंतु शरीर साथ नहीं देता तो सब व्यर्थ है। अतः स्वस्थ शरीर का अपना प्रभाव है। इसलिए मनीषियों ने कहा है कि :-

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।

नहि सुप्तस्य सिंहस्य मुखे प्रविशंति मृगाः।


मनुष्य को चाहिए कि जिस स्वास्थ्य पर और स्वस्थ शरीर पर जीवन की, समाज की, राष्ट्र की अनेक अपेक्षाएँ टिकी हैं, उस शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए नियमित रूप से व्यायाम करे। ऐसा न करने पर शरीर आलसी, निरुत्साही हो जाता है। अपने दूर भागते हैं, पराए आँख दिखाते हैं, बात-बात पर खिल्ली उड़ाते हैं। जो लोग नियमित व्यायाम करते हैं, वे निरोग रहते हैं। उनके शरीर में स्फूर्ति रहती है। पाचन-शक्ति बढ़ती है। मन प्रसन्न रहता है। समाज में आदर मिलता है, प्रभुत्व बना रहता है। प्रसन्न रहने पर लोग आत्मीय संबंध बनाते हैं। लक्ष्मी अक्षुण्ण रहती है। शत्रु आँख नहीं उठाते। मस्तिष्क में आए विचार सकारात्मक होते हैं। निराशा को कोई स्थान नहीं मिलता। जीवन सर्वथा आनंदित रहता है। शरीर अस्वस्थ होने पर मन की दृढ़ इच्छाशक्ति साथ छोड़ जाती है। बिना बुलाए अनेक आपदाएँ घेर लेती हैं। अतः स्वस्थ शरीर के लिए नियमित व्यायाम अपेक्षित है। अंततः भौतिक सुख की कामना करते हुए मनुष्य को समय निकालकर शरीर को स्वस्थ बनाए रखने का प्रयास करते हुए अपेक्षित व्यायाम करते रहना चाहिए। स्वस्थ मस्तिष्क का विकास स्वस्थ शरीर में ही संभव है-ऐसा प्रबुद्धों का मानना है। स्वस्थ शरीर होने पर भौतिक, दैहिक, दैविक, सामाजिक सभी सुखों की अनुभूति संभव है।

No comments:

Post a Comment

Thank you! Your comment will prove very useful for us because we shall get to know what you have learned and what you want to learn?