प्रकृति, पर्यावरण और विकास


प्रकृति-चक्र निरंतर टूट रहा है या यह कहें कि प्रकृति रूठ रही है, प्रकृति में गुस्सा समाया हुआ है प्रकृति का गुस्सा कहाँ थमेगा? यह कहा नहीं जा सकता। इस प्रकृति के रूठने का कारण मनुष्य ही है। प्रकृति-चक्र के टूटने या रूठने से मनुष्य मात्र चिंतित है, समाधान की ओर अग्रसर नहीं है। 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे' की नीति पर चलता मनुष्य मात्र दूसरों को उपदेश दे रहा है. दूसरों को दोष दे रहा है किंतु स्वयं बाज नहीं आ रहा है। यदि ऐसे ही दूसरों को उपदेश देता रहा और प्रकृति के रूठने पर उसे मनाने का प्रयास नहीं किया तो प्रकृति कब निगल जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। प्रकृति बार-बार अपने क्रोध का संकेत दे रही है, फिर भी मनुष्य अपनी आदत से मज़बूर है कि बाज ही नहीं आ रहा है। इससे तो यह प्रतीत हो रहा है कि प्रकृति के क्रोध के बवंडर में शीघ्र ही मानव-संस्कृति समा जाएगी।


पिछले कुछ दशकों में दुनिया की विकास की दर लगभग दो गुनी हो गई है, किंतु पर्यावरण को गरमाने वाली गैसों का उत्सर्जन भी अपेक्षा से अधिक बढ़ गया है। इस कारण इस विकास ने पर्यावरण को प्रदूषित किया है। विकास के नाम पर प्रतिस्पर्धा की दौड़ लगी हुई है। सड़कों पर वाहन दौड़ रहे हैं। खूब तेल फूँका जा रहा है। एक के बाद एक देश अमीर होने के हक को बताकर कार्बन को उगल रहा है। संसार के कर्णधार यह समझते थे कि तेज़ विकास ही गरीबी का इलाज खेती हो, उद्योग हो या अन्य साधन हो-सबके लिए तेल, कोयला जैसे ईंधन चाहिए। किंतु अचानक बदलते मौसम ने बता दिया कि पर्यावरण की बर्बादी की कीमत पर गरीबी उन्मूलन नहीं किया जा सकता। विकास से गरीबी मिटेगी अवश्य, परंतु दूसरी ओर सूखा, बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएँ मनुष्य को कहीं का नहीं छोड़ेंगी। दुनिया पर्यावरण के संतुलन को बनाए रखने के लिए तो चिंतित है, किंतु विकास को छोड़कर नहीं। पर्यावरण-परिवर्तन से भूमि की उर्वरता कम होती जा रही है। फिर भी खाद्य-संकट की समस्या फिलहाल कम है। किंतु वैज्ञानिकों का अनुमान है कि तापमान की वृद्धि के कारण आगे के कुछ वर्षों में खाद्य-संकट उत्पन्न हो जाएगा। भारत में जलवायु-परिवर्तन से उत्पन्न कारण विकास के लिए चुनौती बनकर सामने खड़ा हुआ दिखाई दे रहा है। तापमान बढ़ने से गरमियों में नदियों में पानी कम हो जाता है, जिससे सिंचाई पर प्रभाव पड़ता है। परिणामस्वरूप कृषि-कार्य के लिए समस्या उत्पन्न हो रही है। नदियों के सूखने से पीने के पानी का भी संकट वर्ष-प्रतिवर्ष गहराता जा रहा है। लोग चिंतित हैं कि बदलते पर्यावरण और प्रकृति का क्रोध ऐसे ही बढ़ता रहा, तो शीघ्र ही अनेक आपदाएँ एक साथ इकट्ठी होकर टूट पड़ेंगी, जिनसे शीघ्र निजात पाना असंभव होगा। जीवन की आवश्यक वस्तुओं को एकत्र करना बिना ्ति खाद्य-सामग्री, पानी और हवा के व्यर्थ ही प्रतीत होंगा। यह जानते हुए भी कि खाद्यान, पानी, हवा जीवन के लिए देश के प्राथमिक आवश्यकताएँ हैं, आज का मनुष्य इससे बेखबर होकर अन्य सुविधाओं की ओर दौड़ रहा है।


आज परोपकार के सूत्र इतने ढीले हो गए हैं कि परोपकार में भी लोग स्वार्थ देखते हैं। इसका कारण यह है कि दो से चार बनाने में लगा मनुष्य इतना स्वार्थी हो गया है कि उसे पर-पीड़ा का अनुभव नहीं होता। प्रकृति समय-समय पर सावधान कर रही है कि परोपकार से दूर मत होओ, अन्यथा जीवन सरस न होकर नीरस हो जाएगा।


जीवन में सुख की अनुभूति परोपकार से होती है। इससे परोपकार का महत्व स्वयं ही प्रतीत होने लगता है। स्वयं प्रगति की ओर बढ़ते हुए दूसरों को अपने साथ ले चलना मनुष्य का ध्येय होगा तो संपूर्ण मानवता धन्य होगी। मात्र अपने स्वार्थ में डूबे रहना तो पशु प्रवृत्ति है। मनुष्यता से ही मनुष्य होना सार्थक होगा। भूखे को भोजन देने, प्यासे को पानी देने आदि की भावना तो मनुष्य में होनी चाहिए। इतनी भावना भी समाप्त हो जाती है तो पशुवत् जीवन है। जिस दिन परोपकार की भावना पूर्णत: समाप्त हो जाएगी, उस दिन धरती भी शस्य-स्यामला न रहेगी, माता का मातृत्व-स्नेह समाप्त हो जाएगा। पुत्र अपनी मर्यादा को भूल जाएगा, अंततः मानव बूढ़े सिंह-समूह की तरह इधर-उधर ताकता हुआ, पानी के लिए पुकार लगाता हुआ अपने ही मैल की दुर्गंध में साँस लेने के लिए विवश हो जाएगा। अतः संपूर्ण सृष्टि आज भी सहयोग की भावना से चल रही है। यह भावना समाप्त होते ही सब उलट-पुलट हो जाएगा। इसलिए तुलसीदास जी ने कहा :-

परहित सरिस धर्म नहिं भाई।

परपीड़ा सम नहिं अधमाई॥

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