स्वतंत्रता स्वाभाविक रूप से प्राणि-जगत् को प्रिय है। स्वतंत्रता के अभाव में प्राणी अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति को भूल जाता है और संपूर्ण शारीरिक, मानसिक, सामाजिक विकास को कुंठित कर देता है। पराधीन मनुष्य को स्वर्गिक संपदाएँ भी सुख की अनुभूति कराने में समर्थ नहीं होतीं। अनुशासित स्वतंत्र जीवन में जो सुखानुभूति होती है, उसकी सहज कल्पना भी नहीं की जा सकती। वह वर्णनातीत होती है। 'हम पंछी उन्मुक्त गगन के' कविता में कवि ने पिंजरबद्ध पक्षी की कल्पना करते हुए चित्रित किया कि पक्षी भी दाना, चुग्गा, पानी के होने पर भी निरंतर पिंजरे से मुक्त होने का प्रयास करता है, फिर परतंत्र जीवन में मनुष्य को कैसे सुख मिल सकता है। इस सोच को व्यास जी ने इस प्रकार व्यक्त किया है :
सर्वं परवशं दुःखम्, सर्वमात्मवशं सुखम्
पराधीनता मनुष्य के माथे पर कलक है, जिसे आसानी से मिटाया नहीं जा सकता। प्रभाकर जी ने इस संबंध में लाला लाजपत राय के अनुभवों को चित्रित किया है कि वे अमेरिका गए. इंग्लैंड गए, फ्रांस गए और दूसरे देशों में घूमे। जहाँ भी गए भारत की गुलामी का कलंक उनके माथे पर लगा रहा। तब उन्होंने कहा कि मनुष्य के पास संसार के ही नहीं, अपितु स्वर्ग के समान उपहार और साधन हों और वह गुलाम हो तो सारे उपहार और साधन उसे गौरव प्रदान नहीं कर सकते। उस स्थिति में सुख की अनुभूति नहीं होती है। अतः चैतन्य व्यक्ति की बात तो क्या, पिंजरबद्ध पक्षी को भी सुख-साधन सुख प्रदान नहीं कर सकते। अतः परतंत्रता से बढ़कर पीड़ित करने वाली पीड़ा शायद ही दूसरी हो सकती है। परतंत्रता मानसिक शारीरिक, वैचारिक सभी प्रकार से पीड़ित करती है। भारत की परंपरा 'अतिथि देवो भवः' की रही। अंग्रेज़ों ने भारत की इस उदारता का चालाकी से लाभ उठाया। अतिथि बनकर आए और अवसर पाकर संपूर्ण भारत पर अधिकार ही कर बैठे। आस्तीन के साँप इस अतिथि की जब तक पोल खुलती. तब तक बहुत देर हो चुकी थी। पिंजरबद्ध पक्षी की तरह भारत तड़पकर रह गया। अंग्रेज़ों की यातनाएँ बढ़ने लगीं। अंग्रेज मानवता को उतारकर खूँटी पर टाँग, भारतीय जनता पर कहर ढाहने लगे। परतंत्रता में भारतीय कुलबुलाने लगे, पिंजर को तोड़ने की योजनाएँ बनने लगीं, घटनाएँ होने लगीं, किंतु अंग्रेज इतने चतुर थे कि युवकों की योजनाओं को नष्ट-भ्रष्ट कर देते। कारण यह था कि योजना बनते ही उसका प्रचार होता और अंग्रेज़ योजनाओं का दमन कर देते। इस तरह भारतीय युवक असफल हो जाते प्राणों की आहुति देकर अपना कृत्य समाप्त कर लेते। प्राणों की आहुति देने वाले युवकों की संख्या बढ़ती गई. किंतु अंग्रेज तिलमिलाए अवश्य पर घबराए नहीं। क्रांतिकारियों का दल आगे आया। भगत सिंह, राजगुरु, चंद्रशेखर, बिस्मिल आदि सहजता से प्राणों की आहुति देते गए। उन क्रांतिकारियों के मन में भावना थी कि परतंत्र जीवन तो नरक से भी बदतर है। अतः स्वतंत्रता के लिए प्राणों की आहुति देना ही उन लोगों ने श्रेयष्कर समझा।
जब मनुष्य स्वयं मरने की चिंता किए बिना शत्रु से लोहा लेने के लिए आतुर होता है तो भय स्वयं पलायन कर जाता है। प्राणों को हथेली पर लिए पुरुष को कोई भय विचलित नहीं कर सकता। यही कारण था कि क्रांतिवीर चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु जैसे बाल-युवक अंग्रेजों की शक्ति की चिंता किए बिना उनसे भिड़ने को आतुर रहते थे। ऐसे निडर युवकों को वीर सावरकर, सुभाषचंद्र बोस जैसे महान राष्ट्र भक्तों का दिशा-निर्देशन प्राप्त हो जाए तो कैसी भी भयानक आपदा पथ-विचलित नहीं कर सकती। ऐसा संयोग मुझे मिला होता तो उनके दिशा-निर्देशन में कंधे से कंधा मिलाकर सहयोग करता। जन-सामान्य में स्वतंत्रता के महत्व और परतंत्रता के कलंक की बातें बताकर मानव-समूह को चैतन्य करने का प्रयास करता। छत्रपति शिवाजी की नीति से प्रेरित होते हुए छापामार पद्धति से अंग्रेजों को भयभीत करता और आचार्य चाणक्य की नीतियों को लेकर जन-सामान्य का संगठन बनाने का प्रयास करता। ईश्वर से निरंतर प्रार्थना और कामना रहती कि है ईश्वर! इस पराधीनता से मुक्त करने की शक्ति और प्रेरणा दे।
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