आमतौर पर व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के संपर्क में आता है तो उसके व्यवहार की दो स्थितियाँ होती हैं- पहली स्थिति में वह अपने संपर्क में आने वाले व्यक्ति के साथ समान व्यवहार करता है। दूसरी स्थिति में व्यक्ति असमान व्यवहार करता है, अर्थात् बुराई वाले के साथ भलाई या भलाई करने वाले के साथ बुराई करता है। इनसे अलग एक अन्य स्थिति होती है, जिसमें बुराई के बदले भलाई करने वाला व्यक्ति महान होता है।
सामान्यतः जीवन को देखने विचारने के दृष्टिकोण इन्हीं व्यवहारों की दृष्टियों से बने हैं। सज्जनता व दुर्जनता एक-दूसरे की कसौटी हैं। सज्जन की कसौटी दुर्जन है तो पुण्य की कसौटी पाप है। जो व्यक्ति प्रकृति से सज्जन होता है, वह कभी बुरा कार्य नहीं करता है। व्यक्ति की प्रवृत्ति ऐसी है कि वह हमेशा बुराई को नापसंद करता है, परंतु व्यवहार में वह अपने चिंतन को कार्यरूप नहीं दे पाता। मनुष्य जीवन की सच्ची सार्थकता स्वयं को सत्पथ पर ले जाने में है। वह बुराई छोड़कर अच्छाई को ग्रहण करे और आगे बढ़ता जाए। हमारे समाज में अनेक ऐसे उदाहरण हैं, जिनसे पता चलता है कि मनुष्य बुरों को क्षमा करता है। राम, पांडव, श्रीकृष्ण आ महापुरुषों ने सदैव बुराइयों का विरोध किया। महात्मा बुद्ध ने अपनी जान लेने वाले को भी क्षमा कर दिया। महात्मा गांधी ने अपने हत्यारे को माफ़ किया। इससे यह सिद्ध होता है कि महान व्यक्ति ही इस विचार को अपने जीवन में पालन कर सकते हैं। मानव जीवन में परोपकार का महत्व निर्विवाद रूप से माना जाता है। परोपकार किसी स्वार्थ से प्रेरित होकर नहीं किया जाता। परोपकार करने वाला व्यक्ति अपने लाभ या हानि की चिंता नहीं करता। कर्ण ऐसा ही दानी था, जो माँगने वाले की इच्छा के अनुसार अनायास ही सब कुछ दे देता था।
समाज में अनेक व्यक्ति रहते हैं और सबमें परस्पर व्यवहार की स्थिति के अनुरूप संबंध बनते और बिगड़ते हैं। जो लोग यह मानते हैं कि मनुष्य के सत्कर्म ही उसके जीवन की सबसे बड़ी पूँजी है, वे अपने व्यवहार में त्याग, तप, परोपकार को सर्वोच्च स्थान देते हैं। मस्त रहने वाले व्यक्ति यह चिंता नहीं करते कि उन्होंने किससे कैसा व्यवहार पाया और उत्तर में कैसा व्यवहार देना है? वे अपनी उँगली काटने वाले को भी क्षमा करके उसके प्रति भलाई करते हैं। ऐसे विचारक अहिंसावादी जीवन-दर्शन को मानकर भक्ति-भाव, परोपकार की स्थापना व्यक्ति के लिए ही न करके सबके लिए करते हैं।
भलाई और बुराई के साथ एक तथ्य यह भी है कि यदि व्यक्ति अपनी भलाई नहीं छोड़ता तो बुराई को कभी-न-कभी पराजय का मुँह देखना ही पड़ता है। शक्ति सत्य में है, असत्य में नहीं। असत्य का फल चमके हुए रेत की तरह जल का भ्रम पैदा कर सकता है, किंतु वह जल कदापि नहीं होता। इस प्रकार यह सिद्धांत आदर्शवादी रूप मान्य हो सकता है कि जो हमारे साथ बुराई करे, हम उसके साथ भलाई करें, किंतु यथार्थ की दृष्टि से और आज के युग को देखते हुए यह सिद्धांत व्यावहारिक नहीं है।
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