आधुनिकता एक विचारधारा है। पुराने से स्वयं को अलग करके नए विचार व दिशा बनाना ही आधुनिकता है। हर बीता समय प्राचीनता में चला जाता है। हम आधुनिक युग उस समय से प्रारंभ करते हैं, जब से दुनिया में शासन व जीवन में नए स्वरूप का प्रादुर्भाव हुआ, नई जीवन व्यवस्था प्रारंभ हुई। प्राचीन काल में राजशाही या सामंतवादी प्रथा थी उस समय आम व्यक्ति के लिए विकास का कोई अवसर विद्यमान न था। आधुनिक युग की सबसे बड़ी उपलब्धि है-वैज्ञानिकता। यह वैज्ञानिकता विचारों से लेकर यंत्रों के निर्माण तक में है। नए-नए साधन विकसित हुए। साथ-साथ जनशक्ति को बल प्राप्त हुआ तथा लोकतंत्रों का उदय हुआ।
समाज के विकास में नर-नारी का समान योगदान होता है। प्राचीन काल में मातृसत्तात्मक व्यवस्था थी। धीरे-धीरे राजवंशों का प्रचलन हुआ और नारी का महत्व घटने लगा। मध्यकाल में नारी की स्थिति और गिर गई। सामंतवादी संस्कृति ने नारी को मात्र भोग्या बना दिया। वह पुरुष की विलास-सामग्री बन गई। कुछ लोग इस दशा के लिए मुसलमान आक्रमणकारियों को जिम्मेदार मानते हैं। हिंदू समाज की निवृत्तिमार्गी विचारधारा में भी मोक्ष प्राप्ति में नारी को बाधक माना गया उन्होंने तो नारी को सर्पिणी तक का नाम दे दिया। नारी चारदीवारी में कैद कर दी गई।
आधुनिक युग की शुरुआत से जीवन के हर क्षेत्र में परिवर्तन आ गया। नारी की स्थिति सुधारने के लिए प्रयास किए जाने लगे। भारत में समाज सुधारकों ने सती प्रथा, शिशु हत्या प्रथा आदि कुप्रथाओं का डटकर विरोध किया। स्त्री-शिक्षा व विधवा-विवाह के प्रोत्साहन के लिए सरकारी व गैर-सरकारी प्रयास किए गए। नारी-सुधार आंदोलन शुरू हुए। आजादी के बाद देश में लोकतंत्र स्थापित हुआ।
नए शासन में स्त्रियों को पुरुष के बराबर दर्जा दिया गया । सैद्धांतिक व कानूनी तौर पर नारी को वे समस्त अधिकार प्राप्त हो गए जो पुरुष को उपलब्ध हैं। सच्चे अर्थों में इन समस्त अधिकारों का उपभोग करने वाली वर्तमान जीवन की चेतना से पूर्णतः अनुरंजित नारी का नाम ही आधुनिक नारी है।
आधुनिक नारी का अर्थ, रूप व सौंदर्य से संपन्न नारी से नहीं है। नई चेतना, नए विचारों से युक्त नारी को ही आधुनिक कहा जाता है। भारत की आधुनिक नारी अभी तक आदर्श ही है। भारत में विकास के चाहे कितने ही दावे किए जाएँ, परंतु आज भी वास्तविकता यह है कि स्त्रियों को बराबरी का अधिकार नहीं दिया गया है। उसे आज भी उपेक्षित माना जाता है। अशिक्षा, रूढ़िवादिता, मूल्य खो चुके संस्कार आज भी उसे घेरे हुए हैं, परंतु अब समय के साथ स्थिति में परिवर्तन आ रहा है।
आज की नारी को दो स्तरों पर संघर्ष करना पड़ता है। पहला संघर्ष, समाज नारी को परंपरागत दृष्टिकोण से देखता है। वहीं नारी आधुनिकता के नाम पर उच्छृखलता को ग्रहण कर रही है। वह 'परिवार' नामक संस्था को निरर्थक समझ रही है। भारतीय नारी को चाहिए कि वह समाज की श्रेष्ठ जीवनोपयोगी परंपराओं को स्वीकार करके विकास के नए आयाम प्राप्त करे। उसे पश्चिम का अंधानुकरण नहीं करना चाहिए।
नारी के समक्ष दूसरा संघर्ष क्रियात्मक है। पुरुष नारी पर अपना अधिकार समझता है। सैद्धांतिक तौर पर वह नारी की स्वतंत्रता का हिमायती है, परंतु व्यवहारिक स्तर पर इसे प्रदान करने में हिचकता है। उच्च व शिक्षित वर्ग में भी इस कारण संघर्ष रहता है। इस बात का उदाहरण महिला आरक्षण विधेयक है। सभी राजनीतिक दल इसे लागू करने का विरोध कर रहे हैं। सामान्य बुद्धिस्तर के समुदाय में आज भी नारी जटिल परिस्थितियों में जीवन व्यतीत कर रही है।
नारी मुक्ति का प्रमुख आधार है-उसका आर्थिक रूप से स्वावलंबी होना। जब नारी आर्थिक रूप से समर्थ होगी, तब उसे निर्णय करने का अधिकार मिलेगा। कभी-कभी नौकरी भी उसे परिवार में प्रमुख स्थान नहीं दिला पाती। बाहर निकलने पर नारी को स्थान-स्थान पर बाधाएँ झेलनी पड़ती हैं। बुरे लोगों के संपर्क में पड़कर वह पतन के गर्त में चली जाती है। नारी को इस स्थिति में सँभलकर रहना चाहिए। कुछ लोग फैशन से युक्त नारी को आधुनिकता का मापदंड मान लेते हैं। ऐसी नारियाँ चंद चाँदी के सिक्कों के लिए अपनी स्वतंत्रता दाँव पर लगा देती हैं। अर्थ-संपन्न घरों की शिक्षित औरतें फैशन करने, परनिंदा करने आदि में समय व्यतीत करती हैं। यह गलत प्रवृत्ति है। जिस प्रकार उच्च शिक्षा, गंभीर चिंतन व श्रेष्ठ आचरण आदर्श पुरुष के सनातन लक्षण हैं, उसी प्रकार नारी के भी। नारी को इन गुणों को आधुनिक संदर्भों में विकसित करना होगा।
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