स्वदेश प्रेम


स्वदेश प्रेम की अपनी अलग पराकाष्ठा है. अपना अलग प्रेम है, अनेक सुख-सुविधाओं को प्राप्त करके भी मनुष्य समय-समय पर अपनी संस्कृति, अपनी जन्मभूमि को याद करता है, अर्थात् सुखद परिस्थिति में भी उसे नहीं भुला पाता है, क्योंकि जन्मभूमि के प्रेम को भुलाया जाना संभव नहीं है। अपने देश से प्रेम के लिए प्राणों का भी सौदा करना पड़े तो भी सस्ता है। इसलिए कहा गया है :-

देश-प्रेम का मूल्य प्राण हैं, देखें कौन चुकाता है।

देखें कौन सुमन शैय्या तज, कंटक पथ अपनाता है।


अपनी मातृभूमि का  प्रेम था, जो स्वर्ण-लंका का वैभव श्रीराम को आकर्षित नहीं कर सका। उन्होंने लक्ष्मण से कहा :-

अपि स्वर्णमयी लंका मम रोचते लक्ष्मण !

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥


देशप्रेम की भावना मात्र इतनी ही नहीं है कि दूसरे देशों के आक्रमण करने पर अपने प्राणों की बाजी लगा दें और शत्रु का मुकाबला करें। अपने ऐसे देशप्रेम को प्रदर्शित करने के लिए शत्रुओं की बाट जोहते रहें और वीरता दिखाते हुए प्राणाहुति दे दें। देशप्रेम की सूक्ष्म भावना ऐसी पवित्र भावना है कि हम अपने देश की संस्कृति से प्रेम करें, ऐसे कार्य करें, जिससे देश की पराकाष्ठा में वृद्धि हो। जिस देश में जन्म लेकर, उसका अन्न, जल, वायु लेकर बड़े होते हैं, उस देश के प्रति सजग रहें कि हमसे ऐसा कोई कार्य न हो, जिससे देश की प्रतिष्ठा को आँच आए। अपनी भूमि, जिसका जल अमृत के सम शीतल है, जिसकी रज में लोटकर इतने बड़े हुए हैं, जिसकी गोद में माता के समान आनंद की अनुभूति की है, उसकी प्रतिष्ठा पर आँच न आने दें। इस कारण हम अपने देश की मातृभूमि को भारत माता कहकर पुकारते हैं। माता-पुत्र का संबंध स्थापित करके प्रेम करते हैं। संसार में ऐसा कोई देश नहीं है, जो माता कहकर पुकारा जाता हो। न कोई चीन को माता कहता है, न कोई अमेरिका को माता कहता है। संपूर्ण विश्व में अपना ही एक ऐसा देश है, जिसकी भूमि से माता-पुत्र का संबंध है। इस संबंध के कारण राष्ट्रकवि ने कहा है :-

जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।

वह नर नहीं, नर पशु निरा है और मृतक समान है।


देशप्रेम की भावना से ओत-प्रोत मनुष्य देश के प्रति निस्स्वार्थ भावना रखता है। अपने प्रेम के प्रतिकार में देश से कुछ अपेक्षा नहीं रखता। अपेक्षा रखता है तो देश के गौरव की हमारे देश में कितने ही ऐसे महापुरुष हुए, जिन्होंने अपने देश की प्रतिष्ठा के लिए हँसते-हँसते प्राणाहुति दे दी, जिनके हम नाम तक नहीं जानते हैं। इसलिए कविवर दिनकर जी ने कहा है कि :-

तुमने दिया देश को जीवन, देश तुम्हें क्या देगा।

अपनी आग तेज करने को, नाम तुम्हारा लेगा।


किसी देश की प्रतिष्ठा, विशालता देश की सीमाओं से नहीं, अपितु उस देश के महापुरुषों से होती है; महापुरुषों के चरित्र से होती है। देश का गौरव देश के राजा नंद, राजा जयचंद जैसे विलासी लोगों से नहीं, अपितु झोंपड़ी में रहने वाले देश के लिए क्षण-क्षण का सदुपयोग करने वाले आचार्य चाणक्य, छत्रपति शिवाजी, वीर सावरकर, नेता जी सुभाषचंद्र बोस, क्रांतिकारी पुरुष चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, बिस्मिल, गांधी, तिलक, मालवीय, मंगल पांडेय, लक्ष्मीबाई के महान चरित्र से है। स्वामी दयानंद से है, स्वामी विवेकानंद से है, जो देश के गौरव के लिए अपना सुख त्यागकर देश के लिए अर्पित रहे। इस देश की परंपरा रही है कि जब-जब देश पर आपदाएँ आईं, तब-तब इस भूमि से जनता में देशप्रेम का मंत्र फूँकने वाले महापुरुष सामने आए और मातृभूमि के प्रति प्रेम का निनाद किया। इतिहास साक्षी है कि विषम परिस्थितियों में निस्तेज हुए भारतीयों को तुलसी के मानस ने दिशा दी, गीता ने कर्म की प्रेरणा दी। हताश जन-समुदाय इनसे प्रेरणा पाकर देश के गौरव के लिए जागरूक हो उठा। अपना देश भारत, जिसकी छटा में विविधता है; भाषा, बोली, धर्म, संप्रदाय, वर्ण, संस्कृति, सभ्यता के स्तर पर विविधता-ही-विविधता है। ऊपर से देखने पर सब अलग-अलग प्रतीत होते हैं, किंतु देशप्रेम की भावना सर्वत्र एक-सी ही व्याप्त है। देशप्रेम की भावना एकता के सूत्र में बाँधे रखती है। एकता के सूत्र में बँधे हुए विविध वर्णों के पुष्पों की माला की तरह सभी एकता के भाव से सजे-धजे हैं। जब जब शत्रु देश भारत भूमि पर आक्रमण किए, तब-तब स्वदेश प्रेम की सुगठित, संगठित भावना का परिचय देखते ही बना है। देशप्रेम की भावना एक ऐसा अटूट बंधन है, अटूट धागा है जो कोई भी चाहकर छिन्न-भिन्न नहीं कर सका। सदियों से गुलाम रहने पर भी कोई भी हमारी भावना मिटा न सका। यहाँ के देशवासियों की प्रेम भावना से अभिभूत होकर देवता भी इस भूमि पर जन्म लेने की कामना करते हैं और जन्म लेकर स्वयं को धन्य मानते हैं। यही कारण है कि राम, कृष्ण, बुद्ध की पावन भूमि पर जन्म लेने वाला मानव हर विषम परिस्थिति में अपनी मातृभूमि से अनुराग रखता है। इस संबंध में कवि ने कहा है :-

विषुवत् रेखा का वासी जो, जीता है नित हाँफ-हाँफकर ।

रखता है अनुराग अलौकिक, वह भी अपनी मातृभूमि पर ॥


अपनी मातृभूमि की यह अलौकिक संपदा है कि मानव स्वयं प्रेरित होकर स्वदेश के प्रति विषम परिस्थितियों में भी प्रेम करता है। जिस देश के लोगों को अपने देश से प्रेम नहीं होता, उन लोगों की, उस देश की गरिमा शीघ्र ही नष्ट हो जाती है, उस देश की सीमाएँ असुरक्षित होती हैं। आतताई आँखें उठाते रहते हैं। कोई भी अत्याचारी उस देश की मान-मर्यादा पर हाथ बढ़ाने के लिए उतारू हो जाता है। देशप्रेम ही एक ऐसी भावना है जो कठिन परिस्थिति में धैर्य से, विपदाओं से लोहा लेने के लिए तत्पर रखती है। यही भावना ऐसी है जो अपने अस्तित्व को अक्षुण्ण बनाए रखने में समर्थ है। इसलिए यह भावना सार्थक हो कि :-

'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।'


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