संचार तथा परिवहन के विकास, नई-नई वैज्ञानिक तकनीकों तथा सूचना प्रौद्योगिकी के विकास से आज न केवल भौगोलिक दूरियाँ कम हुई हैं, बल्कि संसार के विभिन्न राष्ट्र, एक-दूसरे के बहुत निकट आ रहे हैं। इस प्रकार विश्व के राष्ट्रों के निकट आने की प्रक्रिया को ही वैश्वीकरण कहा जा रहा है।
विश्व के विकसित देशों के पास तकनीकी है तो विकासशील और अविकसित राष्ट्रों के पास कच्चा माल और सस्ता श्रम। आज सभी विकासात्मक कार्यों और समस्याओं की व्याख्या विश्व-स्तर पर होती है। इसलिए विश्व-बंधुत्व की भावना को बढ़ावा मिल रहा है। वैश्वीकरण में निरंतर बढ़ते औद्योगिक विकास तथा संचार के साधनों का सबसे महत्वपूर्ण योगदान है। मुद्रणकला तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विकास से हमें समाचार-पत्रों, रेडियो, दूरदर्शन आदि के द्वारा विश्व के किसी भाग में घटित होने वाली घटनाओं की जानकारी तत्काल के मिल जाती है। उसकी विश्वव्यापी प्रतिक्रिया भी स्वाभाविक है। टेलीफ़ोन, ई-मेल, फैक्स के द्वारा हम अविलंब देश-विदेश में स्थित अपने मित्रों, संबंधियों, व्यापारिक प्रतिष्ठानों से संपर्क कर सकते हैं। बैंकिंग और इंटरनेट के विकास से व्यापारिक गतिविधियों में तेजी आई है। यातायात के साधन आज इतने विकसित और सुविधाजनक हो गए हैं कि हम अल्प समय में ही अपने गंतव्य पर पहुँच जाते हैं। इससे पर्यटन उद्योग का विस्तार होता है, सांस्कृतिक आदान-प्रदान होता है और व्यापारिक संबंध बढ़ते हैं।
संचार एवं यातायात के विकसित साधनों के कारण व्यक्ति के जीवन-स्तर में अंतर आया है। आज हम विभिन्न देशों में बनी वस्तुओं का उपभोग करते हैं। विभिन्न देशों के बीच व्यापारिक संबंध बढ़ रहे हैं। प्राकृतिक विपदाओं में भी राष्ट्र को अंतर्राष्ट्रीय सहयोग मिल जाता है।
प्रकृति ने संपूर्ण विश्व को भिन्न-भिन्न भौगोलिक परिस्थितियाँ दी हैं, जिनके कारण उन स्थानों के कृषि उत्पादों तथा अन्य उत्पादों की मात्रा में भी अंतर है। इस स्थिति में जहाँ जिस वस्तु का अभाव रहता है, उसकी पूर्ति अन्य देशों से कर ली जाती है। इसी कारण उद्योगपति प्रत्येक स्तर की आवश्यकताओं और माँगों को ध्यान में रखकर अपेक्षित उत्पादन करते हैं।
यदि आज मानव सुखी, शांतिपूर्ण और उन्नत जीवन व्यतीत करना चाहता है, तो इसके लिए आवश्यक है कि अधिकाधिक अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और सद्भावना में वृद्धि हो और विभिन्न राष्ट्र एक-दूसरे के पूरक बनें । इस संबंध में यह कहना तर्कसंगत होगा कि प्रत्येक व्यवस्था उचित सीमा में ही लाभकारी सिद्ध होती है। यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि वर्तमान वैश्वीकरण के मूल में विकसित देशों के औद्योगिक प्रतियोगिता की भावना निहित है । इस क्षेत्र में जो देश आगे हैं, वे विकासशील और अविकसित देशों में अपनी पूँजी लगाने, अपना उद्योग स्थापित करने, वहाँ के कच्चे माल और सस्ते श्रम का उपयोग करने आदि द्वारा अधिकाधिक लाभ उठाने की होड़ में लगे हैं। इस होड़ में विकसित देश अधिक सफल तो हो रहे हैं, किंतु उनकी इस प्रतियोगिता से उन देशों की प्रगति रुक जाने का भय है, जो तकनीकी और प्रौद्योगिकी दृष्टि से पिछड़े हुए हैं। इससे विकसित और अविकसित देशों के बीच की खाई के और भी बढ़ जाने की आशंका है।
वैश्वीकरण की इस प्रक्रिया में विकासशील और अविकसित देशों को यह सावधानी बरतनी होगी कि वे इस होड़ में विकसित देशों के आर्थिक शोषण के शिकार न बनें तथा इसका उनके औद्योगिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। तभी वैश्वीकरण की भावना समता और सहयोग पर आधारित होगी और समूचे विश्व का विकास और कल्याण होगा। वैश्वीकरण की इस भौतिक प्रक्रिया के मूल में वह वैचारिक क्रांति है, जो यूरोप के पुनर्जागरण और विश्वव्यापी 'सुधार आंदोलन' के कारण प्रारंभ हुई। संस्कृतियों के आदान-प्रदान और वैचारिक मंथन से 'वसुधैव कुटुंबकम्' का हमारा स्वप्न साकार होगा और वैश्वीकरण केवल भौतिक वैश्वीकरण न होकर आध्यात्मिक होगा।
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