भाषाई साम्राज्यवाद की चुनौती


दुनिया में अंग्रेज़ी का विस्तार और प्रचार- प्रसार बहुत ज़्यादा व तेज़ी के साथ हो रहा है। इसका कारण अंग्रेज़ी की खूबी नहीं है। यह भाषाई साम्राज्यवाद है। साम्राज्यवाद यह प्रचार करता है कि अंग्रेज़ी ही ऐसी भाषा है, जिसके बिना दुनिया का काम नहीं चल सकता; यह ज्ञान-विज्ञान के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय संवाद व संचार की भाषा है। आज अंग्रेज़ी न जानने वाला पिछड़ जाएगा, भले ही वह कितना ही विद्वान हो आदि-आदि।


यह सुनकर आम व्यक्ति भ्रमित हो जाता है कि अंग्रेज़ी ही सर्वगुण-संपन्न भाषा है। इसी कारण यह भूमंडलीय भाषा बनी है। सत्य इसके विपरीत है। 17वीं, 18वीं व 19वीं सदी में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रसार के साथ अंग्रेज़ी का भी प्रसार हुआ। बीसवीं सदी से अमेरिका ने यह कार्यभार संभाला। यह कार्य अमेरिकी साम्राज्यवाद को बढ़ाने-फैलाने के लिए किया गया है।



आज का साम्राज्यवाद पहले की तरह कार्य नहीं करता। पहले के साम्राज्यवादी देश अपने उपनिवेशों पर अपनी भाषा थोपकर अपने साम्राज्यवाद को सुदृढ़ बनाते थे। मैकाले ने भारत में एक ऐसा दुभाषिया वर्ग बनाना चाहता था, जो रक्त और वर्ण से भारतीय हो, लेकिन रुचि, सोच व नैतिकता आदि से अंग्रेज़ हो। अब भाषाई साम्राज्यवाद का रूप बदल गया है। अब अमेरिका अंग्रेज़ी को सारी दुनिया पर थोपना चाहता है। यह कार्य परोक्ष रूप से किया जा रहा है, जैसे-रोजी-रोटी कमाने के लिए अंग्रेज़ी जानना अनिवार्य कर दिया गया है। जिन गरीब देशों के लोग अमीर देशों में जाकर बसने के लिए ललचाते हैं, उन देशों के अंग्रेज़ी लेखकों को अंतर्राष्ट्रीय सम्मान दिए जाते हैं। इससे यह अहसास पैदा किया जाता है कि अंग्रेज़ी के बिना उनका काम नहीं चल सकता और अंग्रेज़ी जानने के अनेक फायदे हैं। भाषाई साम्राज्यवाद का एक और रूप सामने आया है। अब वह दुनिया की दूसरी भाषाओं के माध्यम से भी साम्राज्यवाद को फैलाने व मजबूती से जमाने का कार्य करता है। वह दूसरे देशों में वहीं की जबान बोलता है, परंतु उनमें भी अपनी भाषा होती है। आज का साम्राज्यवाद दूसरी भाषाओं में अपनी विचारधारा बेचता है। दूसरी भाषाओं में निकलने वाली पत्र-पत्रिकाओं के जरिए, और फिर उन भाषाओं में अपनी चीजों के अनुवादों के जरिए। ये चीजें हिंदी में हों या अन्य भाषाओं में, साम्राज्यवाद की भाषा बोलती हैं। भाषाई साम्राज्यवाद एक चुनौती है। उससे हमें संघर्ष करना है। कुछ लोग लड़ाने के पुराने तरीके अपनाते हैं। वे 'अंग्रेज़ी हटाओ' का नारा देकर हिंदी को बिठाना चाहते हैं, इससे देश में अंग्रेज़ी भाषा या अन्य भाषाओं के लोग उनके विरोधी बन जाते हैं। वे इसे हिंदी का भाषाई साम्राज्यवाद कहने लगते हैं। साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए राष्ट्रवाद ज़रूरी है, परंतु अब राष्ट्रवाद एक बेहतर दुनिया बनाने का संकल्प होना चाहिए। भाषाई साम्राज्यवाद के विरुद्ध जनतांत्रिक नारा है :-


दुनिया में सब हों समान, सब भाषाएँ बनें महान ।


इसका अभिपाय है कि भाषा किसी की बपौती नहीं होती। हर व्यक्ति किसी भी भाषा को सीख सकता है, उसमें दैनिक कार्य कर सकता है। किसी भाषा को दूसरी भाषाओं से श्रेष्ठ बताना और उसे दूसरों पर थोपना अमानवीय है।


आज हमारे देश में अंग्रेज़ी भाषा दूसरी तमाम भाषाओं पर राज इसलिए कर पा रही है कि उसके पीछे साम्राज्यवाद की आर्थिक और सैन्य शक्ति है और हमारे ही देश का एक वर्ग जो साम्राज्यवाद का दुभाषिया है, उसे राजसिंहासन पर बिठाए हुए है। आज साम्राज्यवाद ने हमारी भाषाओं को अनुवाद की भाषा बना दिया है। मौलिक चिंतन यूरोप या अमेरिका में होगा और दुनिया के बाकी देश अपनी भाषा में उसका अनुवाद करें उदाहरण के लिए संरचनावाद, विखंडनवाद, उत्तर आधुनिकवाद, विमर्श आदि सब बाहर की देन हैं। अमेरिका इन सबके पक्ष में प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से प्रचार करता है।


दुनिया के दूसरे देश उसकी चाल नहीं समझते और उसके जाल में फँस जाते हैं, जैसे हमारा देश अभी तक 'आधुनिक' नहीं बन पाया, परंतु हमारे देश के साहित्यकार 'उत्तर आधुनिक' हो गए। इसी तरह 'आंदोलन' शब्द की जगह 'विमर्श' शब्द प्रचलित हो गए। विमर्श एक विशेष प्रकार का कथन है, जिसका संबंध वक्ता या लेखक से होता है, जबकि आंदोलन का संबंध समाज से होता है। विमर्श' ने साहित्य को व्यक्तिवादी बना दिया है। यह सब पश्चिम की नकल है। हमारे साहित्यकार भी 'विमर्श' के नाम पर अपना राग अलग-अलग अलाप रहे हैं। ऐसी स्थिति समाज व भाषा के लिए बेहद खतरनाक है।


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