किसी भी देश की उन्नति व अवनति उस देश के साहित्य पर ही अवलंबित है। कवि रवि से भी अधिक प्रकाश करता है। वह निर्जीव जाति में प्राण-प्रतिष्ठा करता हैं तथा निराश हृदयों में आशा का संचार करता है। हिंदी जगत् के कवियों ने सदैव भारतवासियों को जगाया। आजादी की पहली लड़ाई सन् 1857 में लड़ी गई। इस लड़ाई में मिली असफलता के कारणों का कवियों ने विश्लेषण किया। भारतेंदु ने राष्ट्रीयता की चाँदनी बिखराई । उन्होंने भारत का अतीत व वर्तमान सुनाया :-
रोवहु सब मिलिकै भारत भाई।
हा! हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई।
कवि की वाणी से सुषुप्त संस्कार जागे और 1885 ई० में कांग्रेस की स्थापना हुई। इनके तुरंत बाद प्रेमधन, श्रीधर पाठक आदि ने भारतभूमि का गौरवगान किया। भारतेंदु युग के बाद देश के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में परिवर्तन आया। गांधी जी ने आज़ादी के आंदोलन को बढ़ाया। इस युग में राष्ट्रीयता का रूप निखरा । कवियों ने स्वदेश-प्रेम की व्यंजना बलिदान की भावना से व्यक्त की। देश के सौंदर्य, उसके अतीत गौरव व साधन संपन्नता के गीत गाए गए। प्रसाद के गीतों में यही अभिव्यंजना है-
अरुण यह मधुमय देश हमारा,
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।
मैथिलीशरण गुप्त ने ' भारत-भारती' में भारत की दशा का वर्णन किया है
भारत तुम्हारा आज यह कैसा भयंकर वेष है?
और सब नि:शेष केवल नाम ही अवशेष है।
राम, हा हा कृष्ण हा हा नाथ, हा रक्षा करो।
मनुजत्व दो हमको दयामय, दुख दुर्बलता हरो ।
इस प्रकार गुप्त जी ने राष्ट्र को सावधान किया। राजा और प्रजा के संबंधों पर भी गुप्त जी ने भली-भाँति विचार किया है।
परतंत्रता की कठोर बेड़ी में जकड़े हुए भारतीयों के मुख पर 'दफा चवालीस' का ताला पड़ा था। कवि ही गूँगी जनता के वकील थे। स्वदेशी भावना के साथ-साथ हिंदी कवियों की वाणी में अहिंसा का भी पर्याप्त अंश था। माखनलाल चुतवेदी, सियारामशरण गुप्त, सुभद्राकुमारी चौहान, रामधारी सिंह 'दिनकर' आदि कवियों ने स्वतंत्रता आंदोलन को वाणी दी। सुभद्रा कुमारी चौहान ने हुँकार कर कहा :-
सोलह सहस्त्र असहयोगिनियों दहला दें ब्रह्मांड सखी ।
भारत-लक्ष्मी लौटाने को रच दें लंकाकांड सखी।
इससे भारत के कण-कण में स्वतंत्रता की ध्वनि निकलने लगी। देश के नेताओं ने बलिदानों के गीत सुने और प्राणों की बाजी लगाने को कटिबद्ध हो गए। बंदी बने देशप्रेमी ने रात्रि में कोयल का स्वर सुना। उसे उसकी स्वतंत्रता तथा अपनी परतंत्रता का मान होने लगा और वह गा उठा :-
तेरे गीत कहावें वाह, रोना भी है मेरा गुनाह ।
कवि बालकृष्ण शर्मा ने आह्वान किया :-
कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाए।
भारतीयों ने वह तान सुनी और वे अंग्रेज़ों के खिलाफ़ खड़े हो गए। इस प्रकार कवियों की शंख-ध्वनि से उत्तेजित होकर गांधी जी के नेतृत्व में देश के कोने-कोने में स्वाधीनता की लहर फैल गई और फिर 15 अगस्त, 1947 को देश आजाद हो गया। दिनकर की स्वर्णिम किरणों के साथ कवियों ने स्वर्णिम गीत गाए। जनता ने तिरंगे झंडे लहराए, हृदय में आशा के दीप जलाए और कवियों के कंठ से निकला :-
आज हम स्वतंत्र हुए।
यह भारतीय कवियों की ओजपूर्ण वाणी ही थी, जिसने सोई हुई मानव-जाति को जगाया; जिसने प्राचीन गौरव का बखान किया: जिसने युवाओं में बलिदान का उत्साह जगाया; जिसने कुछ करने और मिटने की राह दिखाई ।
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