भारत गाँवों का देश है। इन्हीं गाँवों में हमारे देश की आत्मा बसती है। भारत में दस लाख से अधिक छोटे-बड़े गाँव हैं, जहाँ भारत की जनसंख्या का लगभग 80% भाग बसता है। यहाँ का रहन-सहन, वेश-भूषा, ग्रामीणों की निश्छलता, हरियाली, शुद्ध पर्यावरण अनायास ही हमारा मन मोह लेते हैं और हमें अपने पास बुलाते हैं।
गाँवों का नाम आते ही हमारे मस्तिष्क में एक अलग एवं विशिष्ट छवि उभरती है। एक ऐसी छवि जहाँ गाँवों में अब भी अधिकांश घर मिट्टी के बने खपरैल या घास-फूस की झोंपड़ियाँ हैं। कहीं-कहीं ये घर पास- पास हैं, तो कहीं दूर-दूर। हरे-भरे पेड़ों से छनकर आती धूप इन घरों पर चित्रकारी करती नज़र आती है। घर के बाहर दरवाजे पर बँधी बैलों की जोड़ी, गाय, भैंस और बकरियाँ ग्रामीण जीवन का पूरक प्रतीत होती हैं। कुछ वर्ग विशेष की आबादी वाले गाँवों में इधर-उधर दाने चुगती मुर्गी और घास चरते बकरे नजर आते हैं। इसके अलावा कुछ दरवाज़ों पर ऊँट, घोड़े, भैंसे भी नजर आते हैं। ये पशु ग्रामीणों के लिए तरह-तरह से उपयोगी हैं। गाँवों में बने घरों में कुछ पक्के भी होते हैं, पर ज्यादातर एक या दो मंजिले ही होते हैं। मकान कच्चे हों या पक्के, पर इनको बसाने की कोई निश्चित योजना न होने से इधर-उधर छितराए से नजर आते हैं। टेढ़ी-मेढ़ी गलियाँ उनमें उड़ती धूल या बहता गंदा पानी और कीचड़ के साथ कूड़े के ढेर होना सामान्य-सी बात है।
गाँवा की बस्ती को छोड़कर अब हम खेतों की ओर चलते हैं। ग्रामीण अपने भरण-पोषण और व्यापार के लिए उपज पर पूर्णतया निर्भर हैं। यहाँ मई-जून के महीने को छोड़ दिया जाए, तो बाकी दिनों में चारों ओर हरियाली नजर आती है। यहाँ वर्षा ऋतु में धान, मक्का, ज्वार, उरद, तिल आदि फसलें लहराती हैं। इनकी हरियाली प्रकृति की शोभा को दूना कर देती है। यहाँ वर्षा ऋतु में काम कर रहे पुरुष, स्त्रियाँ तथा अन्य मजदूरों का उत्साह देखते ही बनता है। हल जो रहे किसान का स्वर तथा बैलों के गले में बजती घंटियाँ वातावरण में संगीत घोलती हैं। पेड़ों पर बैठे कलरव करते पक्षी इस संगीत को और भी मुखरित कर देते हैं। इसके अलावा शीतकाल में गेहूँ, चना, मटर, सरसों तथा तरह-तरह की सब्जियाँ किसानों के जीवन में आशा का संचार करती हुई हरियाली में वृद्धि करती हैं। इन फसलों से किसानों के परिश्रमी होने का प्रत्यक्ष प्रमाण मिलता है।
गाँव का प्रदूषण रहित स्वरूप वातावरण यहाँ के जन-जीवन को स्वस्थ एवं प्रफुल्लित रहता है। ग्रामीण युवक-युवतियों के स्वस्थ शरीर एवं कांतिमय चेहरे को देखकर इसका भान सहज हो जाता है। इनकी चमकती आँखें देखकर मन स्वत: प्रफुल्लत हो जाता है। हाँ किसानों के दुर्बल शरीर और उभरी हड्डियों को देखकर मन दयार्द्र हो उठता है। ये किसान दुर्बल जरूर होते हैं, पर स्वस्थ होते हैं। परम संतुष्ट रहना इनका स्वभाव बन चुका है।
ग्रामीण जीवन का आरंभ भोर की बेला से ही मुखरित हो उठता है आज भी यहाँ मुर्गे और कौए एलार्म बजाकर लोगों को जगाते हैं। महिलाएं अपनी दिनचर्या में लग जाती हैं तथा किसान शैय्या त्याग कर जानवरों के चारे-पानी का प्रबंध करने लगते हैं। इसी समय पूरब दिशा भोर के आगमन का संदेश देती है। उस दिशा में लालिमा छाने लगती है। यह लालिमा स्वर्णकलश लिए आती प्रतीत होती है। इस नवप्रभात का स्वागत पक्षी समूह गान करते हुए करते हैं। इसी समय हमारा अन्नदाता हल कंधे पर रखे खेत की ओर निकल जाता है। वह अपने पोषण की चिंता में कम दूसरों के पोषण की चिंता में घुला जाता है। वह अपनी तथा देश की प्रगति के लिए सतत प्रयासरत रहता है।
ग्रामीण युवक अत्यंत स्वस्थ एवं बलवान होते हैं। वे खेल-कूद और व्यायाम करते हुए भरपूर परिश्रम करते हैं, जिससे उनका शरीर बलिष्ट एवं स्फूर्तिमय बना रहता है। इनमें अपने देश के लिए कुछ कर गुजरने की भावना हिलोरें लेती रहती हैं। वे सेना में भर्ती होकर राष्ट्र की सेवा करते हैं और देशप्रेम का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
स्वतंत्रता के बाद गाँवों के विकास पर जोर दिया गया। इससे गाँवों की दशा में बदलाव आया। आज अधिकांश गाँवों तक बिजली पहुंच गई है, जिससे सुख-सुविधा के साधनों का विस्तार हुआ है । टेलीविजन, कूलर, पंखें तथा अन्य विद्युत उपकरण अब घरों की शान बढ़ाने लगे हैं। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के माध्यम से सड़कें शहर की सीमा लाँघकर गाँवों तक पहुँची हैं। धूल और कीचड़ भरे रास्ते जो गाँवों की पहचान हुआ करते थे, अब गायब हो गए हैं। कीचड़ भरी गलियों का स्थान अब खड़ंजा ने ले लिया है। इसके अलावा विज्ञान के बढ़ते चरणों ने गाँवों का कायाकल्प कर दिया है। कंधे पर हल रखकर खेत को जाने वाला किसान अब ट्रैक्टर से खेती करने लगा है और ट्यूबवेल से सिंचाई करने लगा है। इससे उसकी उपज बढ़ी है। इधर सरकार ने भी अनाज का समर्थित मूल्य बढ़ाकर किसानों के दुख-दर्द को कम करने का प्रयास किया है।
आज़ादी के बाद यद्यपि भारत के गाँवों का स्वरूप बदला है, फिर भी दूर-दराज के गाँवों में अभी न विद्युतीकरण हुआ है और न विकास के कदम पड़े हैं। पढ़े-लिखे लोगों का गाँवों से पलायन तथा डॉक्टरों एवं उच्चाधिकारियों की वहाँ काम न करने की इच्छा वहाँ सब कुछ ठीक न होने का प्रमाण है। सरकार को गाँवों की उन्नति पर ध्यान देना चाहिए। किसी कवि ने ठीक ही कहा है "अपना हिंदुस्तान कहाँ, वह बसा हमारे गाँवों में"
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