शिक्षा का अर्थ केवल अक्षर ज्ञान या पूर्व जानकारी की पुनरावृत्ति नहीं है। इसका अर्थ कार्य या व्यवसाय दिलाना भी नहीं है। शिक्षा का अर्थ है-व्यक्ति को अक्षर ज्ञान कराकर उसमें अच्छे-बुरे में अंतर करने का विवेक उत्पन्न करना। मनुष्य के सहज मानवीय गुणों व शक्तियों को उजागर करना शिक्षा का कार्य है, ताकि मनुष्य जीवन जीने की कला सीख सके। ऐसा करा पाने में समर्थ शिक्षा को ही सही अर्थों में शिक्षा कहा जा सकता है।
शिक्षा प्राप्त करने के साथ मनुष्य को जीवन-निर्वाह के लिए कोई-न-कोई व्यवसाय या रोजगार करना पड़ता है। शिक्षा व रोजगार का प्रत्यक्ष तौर पर भले ही कोई संबंध न हो, परंतु शिक्षा से व्यवसाय में बढ़ोतरी हो सकती है, इस बात में तनिक भी संदेह नहीं है। आज के समय में शिक्षा का अर्थ व उद्देश्य ही लिया जाता है कि डिग्रियाँ हासिल करने से कोई नौकरी या रोजगार अवश्य मिलेगा। इसी कारण से शिक्षा अपने वास्तविक उद्देश्य से भटक चुकी है। आधुनिक शिक्षा व्यक्ति को साक्षर तो बनाती है, परंतु शिक्षित नहीं। इस कारण आज का शिक्षा-तंत्र निरर्थक प्रतीत हो रहा है।
अब यह प्रश्न उठ रहा है कि इस तंत्र की विफलता के क्या कारण हैं? इसका उत्तर भी आसानी से मिल सकता है। आज़ादी से पहले जो शिक्षा-व्यवस्था चल रही थी, उसमें आज तक कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया गया अंग्रेज़ सिर्फ़ क्लर्क पैदा करना चाहते थे। आजादी के बाद देश के नेताओं ने शिक्षा-व्यवस्था को देश की जरूरतों के अनुसार नहीं बदला। परिणाम सामने है। यहाँ शिक्षा सुधारों की बात की जाती है तो वह केवल परीक्षा व्यवस्था को बदलने या पाठ्यपुस्तकें बदलने तक ही सीमित होती है। उस शिक्षा का रोजगार से कोई संबंध स्थापित नहीं किया जा रहा। केंद्र व राज्य सरकारें स्कूलों, कॉलेजों व विश्वविद्यालयों को बड़े स्तर पर खोल रही है, परंतु क्या वे सही मायने में शिक्षित करने का कार्य कर रही हैं।
आज इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि शिक्षा और व्यवसाय में संबंध नहीं है। हर व्यक्ति यही सोचकर स्कूल-कॉलेज में बच्चे को भेजता है कि वह पढ़-लिखकर रोजी-रोटी कमा सकेगा। नौकरी-पेशा वर्ग या छोटा व्यवसायी भी बच्चों को उच्च इसी दृष्टिकोण से दिलाता है, ताकि उसका सम्मान बढ़ सके। ऐसी स्थितियों में शिक्षा और व्यवसाय का संबंध आपस में जुड़ जाना शिक्षा स्वाभाविक ही है।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या वर्तमान शिक्षा पद्धति व्यवसाय के मानकों पर खरी उतरती है। उत्तर है-नहीं। चारों तरफ शिक्षा को व्यवसायोन्मुख बनाने की मांग उठ रही है। इससे अनेक लाभ हो सकते हैं, सबसे पहला तो यह कि शिक्षा के व्यवसायोन्मुख हो जाने से अनेक परंपरागत काम-धंधे इसके साथ जुड़ जाएंगे। इससे परंपरागत कौशल समाप्त नहीं होगा। दूसरे, शिक्षित होकर ऐसे व्यक्ति परंपरागत व्यवसायों को नई तकनीक से जोड़ेंगे। इससे लोगों की आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी तथा देश की बहुत-सारी आवश्यकताएँ भी पूरी होंगी। तीसरे, नौकरियों के प्रति दीवानगी भी कम हो जाएगी। शहरों में भीड़ अधिक नहीं होगी तथा प्रदूषण भी कम होगा। कुछ हद तक बेकारी की समस्या भी हल हो जाएगी।
आज उच्च पदस्थ बुद्धिजीवियों तथा देश के कर्णधारों का ध्यान शिक्षा और व्यवसाय में प्रत्यक्ष संबंध स्थापना की ओर जाने लगा है। फिर समय की मांग भी यही है। इस दिशा में तेजी से व समस्त उपलब्ध साधनों से एकजुट होकर काम करना पड़ेगा ताकि आम शिक्षित वर्ग और शिक्षा-जगत में छाई निराशा दूर हो सके। यह सही है कि आज से जीवन में शिक्षा को व्यवसाय का साधन समझा जाने लगा है, पर अब जो स्वरूप बन गया है. उसे सही ढंग से सजाने-सँवारने और उपयोगी बनाने में ही देश का वास्तविक हित है।
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