पर उपदेश कुशल बहुतेरे


समाज में अनेक तरह के लोग होते हैं। कुछ लोग अपने काम में लीन रहते हैं, तो कुछ काम ही नहीं करते। कुछ स्तुति कार्य करते हैं. तो कुछ निंदा कार्य, परंतु एक सामान्य व्यवहार आमतौर पर मिलता है कि दूसरे को उपदेश देने में किसी को कोई परहेज नहीं होता। हर व्यक्ति स्वयं को निर्दोष, चरित्रवान, सत्यवादी मानता है, परंतु दूसरे उसे कपटी, धूर्त, मक्कार, धोखेबाज नजर आते हैं।


स्वभाव की दुर्बलता है कि वह अपनी आदतों के लिए स्वयं को दोषी नहीं मानता। वह कहता है कि दोष अवश्य किसी दूसरे का है, यदि और किसी का नहीं, तो भाग्य का।


संस्कृत में कहा गया है कि दुर्जन दूसरे के राई के समान मामूली दोष को पहाड़ के समान बड़ा बनाकर देखता है और अपने पहाड़ के समान बड़े पाप को देखते हुए भी नहीं देखता। सज्जन व्यक्ति अपने दोषों को पहले देखता है। महात्मा बुद्ध, दयानंद सरस्वती, महात्मा गांधी आदि अनेक महापुरुषों की यही भावना रही है। अपनी कमियों को स्वीकार करना आत्मबल का चिह्न है। जो लोग अपनी भूल या दोष को दूसरों के सामने नहीं स्वीकारते, वे सबसे बड़े कायर हैं। जिसके अंतःकरण शीशे के समान होते हैं, वे अपनी भूल को तुरंत मान लेते हैं। कबीर का भी कहना है-जब मैंने अपने मन की जाँच की तो मुझे अपने जैसा बुरा कोई नहीं मिला।


दूसरों की बुराइयों को देखने की बजाए अपने मन की बुराइयों को टटोलना अधिक अच्छा है। मनुष्य को आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। यह आत्मोन्नति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। हर व्यक्ति को प्रतिदिन अपना आत्मविश्लेषण करना चाहिए कि उसने क्या अच्छा किया और क्या बुरा किया? इस प्रकार वह अपनी त्रुटियाँ दूर कर सकता है। उसे व्यापारी वाली प्रवृत्ति को अपनाना चाहिए, ताकि शाम के समय दिन भर का हिसाब-किताब मालूम रहे। इस कार्य में सबसे बड़ी बाधा सच्चाई का सामना करने से है। महात्मा गांधी ने सदा अपनी भूलों को स्वीकार किया तथा सदा यही पाठ पढ़ाया कि दूसरों की बुराई खोजने से पहले अपने अंतर्मन में झाँक लेना चाहिए। समाज की सामान्य प्रवृत्ति यह बन गई है कि हरेक को दूसरा व्यक्ति बुरा नजर आ रहा है। ऐसे व्यक्ति स्वयं को धोखा दे रहे हैं। पवित्र आत्मा वाले व्यक्ति को संसार में कोई बुरा नहीं दिखाई देता। इसका कारण उनके मन की पवित्रता है। वे स्वयं पवित्र हैं तो उन्हें दूसरा पापी कैसे दिखाई देगा। जब भी वे स्वयं को देखते हैं तो उन्हें अपने में कमी दिखाई देती है। यही उनकी विनम्रता है।


अच्छाई और बुराई में अंतर करते समय यह परेशानी होती है कि कोई कार्य किसी के लिए अच्छा हो सकता है तो दूसरे के लिए बुरा। यह व्यक्तिगत समझ-बूझ या स्वार्थ पर आधारित हो सकता है, फिर भी समाज में कुछ कार्य सर्वमान्य अच्छे या बुरे होते हैं; जैसे- शराब पीना, जुआ खेलना, धोखा देना आदि बुरे कार्य समझे जाते हैं। अतः हमें दूसरों की बुराई देखने की अपेक्षा अपनी कमियाँ देखनी चाहिए। अधिकांश व्यक्तियों में कोई-न-कोई कमी अवश्य होती है। यदि मनुष्य में कोई कमी न हो तो वह देवता बन जाता है। अतः मनुष्य को अपनी कमियाँ दूर करनी चाहिए, न कि दूसरों की कमियों को लेकर टीका-टिप्पणी करनी चाहिए। समाज में यदि हर व्यक्ति अपने-अपने दोषों का परिहार कर ले तो समाज हँसता हुआ चमन बन जाए।

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