यूँ तो उपवन में नाना प्रकार के फूल खिले होते हैं और वे अपने सौंदर्य एवं महक से वातावरण को महकाते हुए लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं, परंतु गुलाब की सुंदरता एवं महक उसे विशिष्ट स्थान प्रदान करती है। वह सभी का चहेता बन जाता है, ठीक उसी प्रकार हिंदी साहित्यकारों के मध्य मुंशी प्रेमचंद का अपना विशेष स्थान है, उन्हें 'कथा-सम्राट', 'उपन्यास-सम्राट' आदि उपनामों से भी जाना जाता है। यद्यपि मुझे शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, अज्ञेय, फणीश्वरनाथ रेणु, जयशंकर प्रसाद आदि साहित्यकारों को पढ़ना अच्छा लगता है, पर यदि मुझसे यह पूछा जाए कि आपका प्रिय साहित्यकार कौन है? तो मैं निस्संदेह मुंशी प्रेमचंद का नाम लूँगा। प्रेमचंद का साहित्य तत्कालीन समाज का सच्चा दर्पण है, जिसमें भारतीय किसानों, विधवाओं की दीन-दशा के अलावा समाज के दलित-शोषित-उपेक्षित वर्ग का जैसा वास्तविक, सजीव और मार्मिक चित्रण मिलता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है । प्रेमचंद मेरे ही नहीं, कोटि-कोटि सहृदय पाठकों के प्रिय उपन्यासकार हैं, जिन्होंने अपनी कृतियों के माध्यम से जनमानस पर अपनी विशिष्ट पहचान बना ली है। तत्कालीन भारतीय समाज की वास्तविक दशा अर्थात् गरीबी में जन्मे, पले और बढ़े इस साहित्यकार ने एक ओर अपनी लेखनी का प्रभाव छोड़ा है तो दूसरी ओर अपने मानवीय गुणों से भी जनमानस पर अमिट छाप अंकित की है। महान साहित्यकार और उपन्यास-सम्राट मुंशी प्रेमचंद का जन्म वाराणसी से कुछ ही दूर पर स्थित लमही नामक ग्राम के एक कायस्थ परिवार में 31 जुलाई, 1880 को हुआ था। बचपन में उन्हें 'नवाब राय' के नाम से पुकारा जाता था। उन्होंने आरंभिक रचनाएँ इसी नाम से लिखी हैं। महान कवि तुलसीदास की तरह उनका बचपन भी घोर अभावों में बीता। बाल्यावस्था में ही उनकी माता की मृत्यु हो गई। उनका विवाह बचपन में ही कर दिया गया। 16 वर्ष की अल्पायु में पिता की मृत्यु के बाद पारिवारिक बोझ प्रेमचंद के कंधों पर आ गया। अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करते हुए प्राइमरी स्कूल में अध्यापन करने लगे इसके बाद वे कुछ समय तक डिप्टी इंस्पेक्टर भी रहे। प्रेमचंद में राष्ट्रीय भावना एवं देशप्रेम कूट-कूटकर भरा था। गांधी जी के एक आह्वान पर उनकी यह भावना और भी बलवती हो उठी। उन्होंने 1920 में असहयोग आंदोलन में भाग लिया और सरकारी नौकरी को त्याग दिया। वे अपनी रचनाओं से लोगों में देशप्रेम और स्वतंत्रता की अलख जगाते रहे. जिससे कुद्ध होकर अंग्रेजों ने उनकी कुछ रचनाओं को जब्त कर लिया और कुछ को जला दिया। 1930 में उन्होंने अपने सरस्वती-प्रेस से 'हंस' नामक पत्रिका का संपादन किया। इसमें देश-भक्ति और जन-जागरण की रचनाएँ छपने के कारण उन्हें जेल की यात्रा भी करनी पड़ी। इस महान साहित्यकार का निधन 8 अक्तूबर 1936 को हो गया|
प्रेमचंद ने घोर गरीबी का दुख भोगा था उन्होंने किसानों पर जमींदारों, उनके कारिदों और अंग्रेजों के अत्याचार देखे थे। उन्होंने स्त्रियों पर हो रहे अत्याचार, विधवाओं की दुर्दशा देखी थी। अतः इनका मार्मिक चित्रण उनके साहित्य में मिलता है। समाज की आर्थिक विषमता का ऐसा चित्रण अन्यत्र मिलना कठिन है। उनके उपन्यासों-सेवा-सदन, गबन, कर्मभूमि, निर्मला, गोदान, आदि में आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं का चित्रण है तो 'निर्मला' में दहेज की भयावह स्थिति तथा अनमेल विवाह से उत्पन्न समस्या का चित्रण है। 'गोदान' में कथानायक होरी आजीवन आर्थिक विवशता झेलता रह जाता है। प्रेमचंद ने उपन्यासों के अलावा 300 से अधिक कहानियाँ भी लिखी हैं, जो 'मानसरोवर' के 8 खंडों में संकलित हैं।
प्रेमचंद को भारतीय जनमानस की नब्ज की पहचान थी। उन्होंने उनकी समझ, रुचि एवं सामाजिक दशा के अनुरूप आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया, जिससे लोगों को लगा कि प्रेमचंद की साहित्यिक भाषा उनकी अपनी ही भाषा तो है। उन्होंने हिंदी-उर्दू मिश्रित शब्दों का प्रयोग किया, जिसे समाज में बड़ी लोकप्रियता मिली। मुहावरों के प्रयोग से भाषा की सरसता और सुंदरता बढ़ गई। प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है । उन्होंने उपन्यास और कहानी-साहित्य को नई दिशा प्रदान की है। प्रेमचंद मानवता के सच्चे पुजारी थे। उनका समाज - सुधारवादी दृष्टिकोण उन्हें विश्व के साहित्यकारों के समतुल्य स्थान दिलाता है। हिंदी-साहित्य में उनका नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा
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