निबंध क्या है? और एक अच्छा निबंध कैसे लिखते है?


    निबंध क्या है

    'बंध' धातु में 'नि' उपसर्ग लगाने से 'निबंध' शब्द बना है, जिसका अर्थ है अच्छी तरह बँधा हुआ। अर्थात् निबंध गद्य-लेखन की वह विधा है. जिसमें भावों-विचारों को भली प्रकार से बाँधकर प्रस्तुत किया जाए। अंग्रेजी भाषा में इसे 'एस्से' (Essay) कहा जाता है। गद्य-लेखन की अनेक विधाओं में निबंध-लेखन अत्यंत महत्वपूर्ण विधा है, जिसमें लेखक किसी व्यक्ति, वस्तु, घटना आदि के बारे में अपने भावों-विचारों को एक निश्चित आकार में इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि पाठक के मन पर उसका छाप अंकित हो जाती है। निबंध में लेखक की सोच, उसके विचार, चिंतन, संवेदनशीलता की एक झलक मिल जाती है। निबंध ऐसे होने चाहिए, जो विचारों और वर्णन की दृष्टि से अपूर्ण न हों।

    सुप्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने निबंध को गद्य की कसौटी कहा है। उनके अनुसार भाषा की पूर्ण अभिव्यक्ति निबंधों में सबसे अधिक संभव है। वास्तव में निबंध गद्य-लेखन का सर्वाधिक विकसित रूप है।

    निबंध-लेखन-एक कला

    साहित्य लेखन के लिए जिन विधाओं का प्रयोग किया जाता है. उनमें निबंध लेखन प्रमुख है। निबंध-लेखन को गद्य साहित्य-लेखन में कठिन विधा माना जाता है। संस्कृत के विद्वानों का मानना है कि जिस प्रकार पद्य कवियों की लेखन कला की कसौटी माना जाता है, उसी प्रकार निबंध गदय-लेखन की कसौटी माना जाता है। निबंध' का शाब्दिक अर्थ है-भावों-विचारों को शब्दों में बाँधना। इसके अंतर्गत निबंध के आकार को ध्यान में रखकर निबंध-लेखक भाव-विचार, कल्पना और चिंतन तत्व को रूपायित करता है। इसमें उपयुक्त एवं सुंदर शब्दों के माध्यम से पाठकों के समक्ष अनुभूति, ज्ञान का कोष, भावाभिव्यक्ति एवं तात्विक सौंदर्य को संप्रेषित किया जाता है। निबंध के माध्यम से अत्यंत साधारण-से-साधारण और अत्यंत गंभीर भाव दोनों को प्रस्तुत किया जाता है।

    निबंध में आत्मपरकता और वस्तुपरकता दोनों ही मिलती है। लेखक की अपनी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति भाव-प्रवणता तथा भावों की अभिव्यंजना द्वारा होती है जिसका उद्देश्य होता है - पाठकों को अपनी भावानुभूतियों का अनुभव कराना तथा घनीभूत भावनाओं की एक ही स्तर पर अनुभूति कराना। यदि पाठक लेखक या निबंधकार की निजी अनुभूतियों और भावों को अपना समझकर आनंद के सागर में गोते लगाता है, तो यह निबंध की सफलता की चरम सीमा है। पाठक ऐसा तब महसूस करता है, जब निबंधकार आत्मपरक होकर अपनी सच्ची अनुभूतियों को अपने लेखन-कौशल के माध्यम से पाठक के हृदय तक अत्यंत भावावेग से पहुँचाता है। शब्द-चित्रों के माध्यम से अपनी भावानुभूति को पाठक के हृदय में उतार देना निबंधकार की उपलब्धि होती है। निबंध प्रभावशाली बने, इसके लिए लेखक को विषय-वस्तु का अच्छा ज्ञान और प्रस्तुतिकरण की शैली का सम्यक् ज्ञान रखना अति आवश्यक है।


    निबंध के भाग

    निबंध की विषय-वस्तु के प्रतिपादन और उसे प्रभावपूर्ण बनाने के लिए निबंध को निम्नलिखित पाँच अंगों में बाँटा जा सकता है-

    (1) प्रारंभ (प्रस्तावना),

    (2) उत्कर्ष,

    (3) चरमोत्कर्ष,

    (4) अपकर्ष और

    (5) उपसंहार।

    जिस निबंध में ये पाँचों अंग होते हैं, उसे संरचना की दृष्टि से उत्तम निबंध माना जाता है। अब इन अंगों के बारे में विस्तार से समझते हैं


    (1) प्रारंभ (प्रस्तावना)

    इसे निबंध का 'प्रवेश-द्वार' भी कहा जा सकता है। इसका प्रभावी एवं आकर्षक होना बहुत आवश्यक है। किसी काम का ठीक तरह से की गई शुरुआत उसकी आधी सफलता सुनिश्चित कर देती है। ऐसे में निबंधकार से यह अपेक्षा की जाती हैं कि वह प्रारंभ में ही विषय-वस्तु की महत्ता और गंभीरता का इस तरह परिचय दे दे कि पाठक के मन में मूल विषय का जानने, पढ़ने और समझने की तीव्र उत्कंठा जाग्रत हो जाए। यहाँ यह ध्यातव्य है कि यह प्रारंभ संक्षिप्त हो, क्योंकि इसका लंबा होना मूल विषय के प्रति उत्पन्न जिज्ञासा को कम कर सकता है। निबंध का प्रारंभ किसी सूक्ति, उद्धरण, संक्षिप्त कथा, वार्ता, चरमोत्कर्ष पैदा करने वाले अनुच्छेद, शुरू में ही निष्कर्ष देने आदि में से किसी एक को अपनाया जा सकता है। इसका चयन निबंधकार अपनी शैली के अनुरूप करता है। यदि निबंध का प्रारंभ करने में लेखक को सफलता मिल जाती है, तो निबंध के अगले अंग को पढ़ने, मूल बिंदु पर ध्यान केंद्रित करने के लिए पाठक विवश हो जाता है। अतः निबंध के 'प्रारंभ' को आकर्षक और सुंदर बनाने का भरसक प्रयास करना चाहिए।

    (2) उत्कर्ष

    प्रारंभ' के अगले भाग को ही 'उत्कर्ष' के नाम से जाना जाता है। इसके समापन से ही निबंध के मुख्य विषय की शुरुआत होती है। मुख्य विषय को उभारने के लिए निबंध के सभी महत्वपूर्ण बिंदुओं को शामिल करना चाहिए। निबंध में विषय-वस्तु का उत्कर्ष करने के लिए तरीके, तथ्यों और विश्लेषण का सहारा लेना चाहिए तथा निबंध के विभिन्न पक्षों को प्रस्तुत करना चाहिए। इसके लिए निबंधकार को अपने मौलिक चिंतन और अध्ययन का सहारा लेना चाहिए, दूसरे विद्वानों के उद्धरणों का नहीं। उत्कर्ष की सफलतापूर्ण प्रस्तुति निबंध की सफलता की दिशा में बढ़ाया हुआ अगला कदम है। 'उत्कर्ष' निबंध के प्रारंभ (प्रस्तावना) और निबंध के मुख्य विषय-वस्तु को जोड़ने के लिए पुल का कार्य करता है, इसलिए इस अंग को भी प्रारंभ के समान ही आकर्षक और प्रभावपूर्ण बनाने का प्रयास करना चाहिए।

    (3) चरमोत्कर्ष (चरम सीमा)

    यह निबंध का सबसे महत्वपूर्ण एवं प्रमुख अंग होता है। इसे निबंध का कलेवर, निबंध की विषय- वस्तु, निबंध का प्राण आदि नामों से भी जाना जाता है। निबंध में अपना विशेष स्थान रखने के कारण यह अंश सबसे बड़ा होना चाहिए। कुछ भाषाविद् इसे पूरे निबंध का दो-तिहाई तो कुछ तीन-चौथाई तक मानते हैं। निबंधकार निबंध के माध्यम से क्या कहना चाहता है, यह यहीं आकर स्पष्ट होता है। वह अपने पाठकों को अपनी बात समझाने, उसे स्पष्ट करने के लिए युक्तिसंगत तर्कों की मदद लेता है। वह अपने विचारों और तरीकों को सही ठहराने के लिए अन्य विद्व- जनों के उद्धरणों का सहारा लेता है। निबंधकार को अपनी पूरी क्षमता, दक्षता और निपुणता के साथ इस अंश को प्रस्तुत करना चाहिए। यह अंश जितना अधिक प्रभावी होता है, निबंध का सौंदर्य उतना ही बढ़ता जाता है। इससे जहाँ लेखक के दृष्टिकोण का ज्ञान होता है, वहीं यह लेखक को गरिमा भी प्रदान करता है । इस पूरे अंश को पेट माना जाए तो तनिक भी गलत नहीं होगा, क्योंकि पूरे निबंध की सफलता में चरमोत्कर्ष का सर्वाधिक योगदान होता है।


    (4) अपकर्ष

    यह निबंध का ढलान वाला अंग है, किंतु यह बहुत महत्वपूर्ण और कठिन होता है। यहाँ निबंध के बिखरे अंशों को समेटने की ओर बढ़ना पड़ता है। निबंध को अब बिखराव से बचाकर कसाव की ओर ले जाना होता है। इस अंग में प्रायः पुनरावृत्ति हो जाती है। पुनरावृत्ति से पूरे निबंध का आकर्षण कम हो जाता है तथा रोचकता जाती रहती है। अत: इससे बचने का प्रयास करना चाहिए। चरमोत्कर्ष में जिन तर्कों एवं विश्लेषणों का सहारा लेकर निबंध को विस्तार दिया गया था उन्हें दोहराने से उनके प्रति बने स्वीकृतिभाव पर संदेह होने लगता है। यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है कि निबंध को अचानक समाप्ति की ओर नहीं ले जाना चाहिए, अन्यथा उसकी प्रभावशीलता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। यह निबंध के लिए नकारात्मक भाव पैदा करता है।


    (5) उपसंहार

    यह निबंध का अंतिम अंश है, जिसे निबंध का निकास-द्वार' भी कहा जाता है। कहा गया है कि 'अंत भला तो सब भला' अर्थात् जिस कार्य की परिणति अच्छी होती है, वह काम अच्छा ही होता है । इसका उपसंहार कैसा हो, इसके बारे में विद्वानों के मत अलग-अलग हैं। कुछ विद्वान मानते हैं कि अंत का अनुच्छेद ही पाठक के मनोमस्तिष्क पर अंतिम प्रभाव डालता है। इस अंश में समूचे निबंध का सार प्रस्तुत करना चाहिए। कुछ विद्वानों का कहना है कि इस अंश को अन्य अंशों से अधिक प्रभावी और आकर्षक बनाना चाहिए ताकि यह पाठक के मन पर अंकित होने का आधार बन जाए। इस अंश में इधर-उधर भटकने के बजाय प्रभावी शब्दों में अपनी बात कहनी चाहिए, क्योंकि इस अंश में लेखक की पकड़ कम होते ही पूरे निबंध के प्रति बनी छवि धूमिल हो जाती है । यहाँ एक बात और ध्यातव्य है कि निबंध में यदि किसी समस्या या तर्कपूर्ण विचारणीय बिंदु को उठाया गया है तो उसका समाधान या निष्कर्ष अवश्य प्रस्तुत करना चाहिए, अन्यथा निबंध अधूरा-का-अधूरा ही रह जाएगा। इससे हमारी समस्या की स्थिति भँवर में फँसी उस नाव जैसी होकर रह जाएगी, जिसका नाविक असहाय होकर स्वयं को भाग्य के भरोसे छोड़ दिया है। अतः निबंधकार को चाहिए कि समस्या का समाधान प्रस्तुत करके कुशल नाविक की तरह निबंध की नौका को किनारे तक अवश्य ले जाए।



    निबंध के तत्व


    1. उद्देश्यपूर्णता

    जिस प्रकार किसी कार्य को करने के पीछे एक उद्देश्य छिपा होता है, उसी प्रकार निबंध का लेखन भी किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही किया जाता है। वैसे भी किसी भी रचना का कोई-न-कोई उद्देश्य अवश्य होता है। सोद्देश्य रचना ही समाज को कुछ संदेश देने में सफल होती है। निबंध में अधिक उपदेशात्मकता भी ठीक नहीं होती। निबंध की कलात्मकता और सौंदर्य को बरकरार रखते हुए एक सकारात्मक 'संदेश' दे देना ही निबंध की सफलता है। निबंध में संदेश उसी प्रकार निहित होना चाहिए जैसे पुष्प में सुगंध, जो दिखती तो नहीं है, पर अपनी उपस्थिति से मन को प्रसन्न करके अपना अस्तित्व बनाए रखती है।


    2. प्रस्तुतीकरण की शैली

    विभिन्न निबंधकारों की निबंध लेखन शैली अलग-अलग होती है जो उनके व्यक्तित्व की परिचायक होती है। हर व्यक्ति की अपनी वैयक्तिकता और मौलिकता होती है। यह तथ्य अपरिहार्य है। शैली का असर लेखक की कृति या रचनाओं का अवश्य पड़ता है। यही शैली उस विशेष निबंधकार की विशिष्ट पहचान बनाती है। शैली के माध्यम से ही वह विचारों को रचना के रूप में मूर्त रूप दे पाता है। किसी भी निबंध को पढ़कर उसकी शैली का अनुमान लगाया जा सकता है। य लेखक के बौद्धिक स्तर, अभिव्यक्ति क्षमता तथा कलात्मकता के स्तर का पता स्वयमेव चल जाता है


    3. विषय-वस्तु का प्रस्तुतिकरण

    किसी विषय के बारे में साहित्यकार और पाठक के भावों-विचारों में थोड़ा या नाममात्र का अंतर होता है, पर प्रस्तुतिकरण कौशल के कारण पर्याप्त अंतर आ जाता है। एक साधारण पाठक किसी तथ्य को जानते-समझते हुए भी अभिव्यक्त नहीं कर पाता, जबकि एक साहित्यकार अपनी शैली, अभ्यास और तर्कशीलता के साथ इतनी कुशलता से प्रस्तुत करता है कि पाठक चकित रह जाता है । उसे लेखक के विचार अपने लगते हैं। वह लेखक के विचारों में रसानुभूति करने लगता है। प्रेस में यह समझना चाहिए कि लेखक अपने उद्देश्य में सफल हुआ है।

    विषय के सुंदर प्रस्तुतिकरण में लेखक की तर्कबुद्धि बहुत काम करती है। वह पाठकों को अपने दृष्टिकोण से सहमत कराने के लिए हर संभव प्रयास करता है। इसके लिए वह तथ्य से संबंधित सम्यक् ज्ञान को तथा तर्कों के प्रस्तुतिकरण का सहारा लेता है। साथ-साथ वह पक्ष के ही नहीं, बल्कि विपक्ष के तर्कों का भी सहारा लेता है। हालाँकि यह तार्किकता निष्पक्ष होनी चाहिए ताकि दूसरे लोग भी उसके दृष्टिकोण से अपनी सहमति बना सकें।

    इसके अतिरिक्त विषयों के प्रस्तुतिकरण में इस बात का ध्यान सदैव रखना चाहिए कि तथ्यों की प्रस्तुति में क्रमबद्धता अवश्य बनी रहे, क्योंकि विचारों की क्रमबद्धता का अपना विशेष महत्व होता है। क्रमबद्धता के अभाव में विचारों और तथ्यों में बिखराव दिखाई देता है, इसलिए तारतम्यता या क्रमबद्धता को शुरू से अंत तक बनाए रखना चाहिए। इसके साथ ही विचारों में संतुलन बनाए रखना चाहिए। इसके लिए विचार-सामग्री की पूर्व-योजना बनानी चाहिए। इसके अभाव में सामग्री का संगठन मुश्किल है। प्रस्तुतिकरण को आकर्षक बनाने के लिए हर विचार या तर्क के लिए स्थान एवं सीमा का निर्धारण कर लेना चाहिए।


    4. निबंध की भाषा

    प्रत्येक व्यक्ति के विचारों की वाहक भाषा होती है। भाषिक दक्षता, निपुणता और उसके कौशल के साथ-साथ भाषा के सौंदर्य पर निबंध के संदेश की संप्रेषणीयता निर्भर करती है। भाषा की सुस्पष्टता और उसमें भावों के सम्यक् प्रयोग से पाठक को प्रभावशीलता की अनुभूति होती है। उपयुक्त भाषा से निबंध को गति मिलती है, जिससे विचार-प्रवाह स्वतः आगे बढ़ता जाता है। भाषा की कसावट से निबंध को गरिमा तथा प्रभावशीलता प्राप्त होती है। इसके विपरीत, जटिल, दुर्बोध तथा क्लिष्ट भाषा एक ओर भाषिक सौंदर्य कम करती है तो दूसरी ओर विचारों की गति में भी अवरोध उत्पन्न करती है। सरल, स्पष्ट और सुबोध भाषा से पाठक का मन पठन में लगता है, जिससे रसानुभूति एवं आनंदानुभूति होती है। यही तो भाषा का उद्देश्य है। सुगठित एवं सरल वाक्यों से भाषा के सौंदर्य की अभिवृद्धि होती है। ऐसे में निबंध की भाषा और वाक्य-रचना की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। भाषा की शुद्धता, स्पष्टता, बोधगम्यता और सरलता से निबंधकार के कथन की सार्थकता पाठकों तक पहुँच पाती है।


    5. प्रभावशीलता

    पाठक के मन पर निबंध का कितना प्रभाव पड़ता है, इसी में निबंध की सफलता निहित होती है। निबंध पढ़ने के बाद यदि पाठक सब कुछ भूलकर उसके रस में डूब जाता है तथा निबंध का संदेश अपने हृदय में उतारने के लिए बाध्य हो जाता है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि निबंधकार अपने उद्देश्य में सफल रहा। निबंधकार को ऐसी स्थिति बनाने का सदैव प्रयास करना चाहिए।


    निबंध के प्रकार

    हिंदी में निम्नलिखित प्रकार के निबंध हैं :

    1. वर्णनात्मक निबंध :- जब निबंधकार किसी बाह्य विषय को लेकर तटस्थ भाव से वर्णन करता है, तो उसे वर्णनात्मक निबंध कहते हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र के प्रकृति-संबंधी निबंध, वर्णनात्मक निबंध हैं। 'नियागरा का प्रपात', 'रुपहला धुआँ' आदि निबंध वर्णनात्मक ही हैं।


    2. विवरणात्मक निबंध :- जब लेखक किसी घटना का क्रमबद्ध ढंग से विवरण देता है तो वह विवरणात्मक निबंध होता है। महावीर प्रसाद द्विवेदी का 'वैदिक देवता' तथा 'एक समालोचक की डाक' विवरणात्मक निबंध हैं।


    3. विचारात्मक निबंध :- विचारात्मक निबंधों में विचारों की प्रमुखता रहती है। लेखक विषय का तर्कसंगत प्रतिपादन करता है। इस प्रकार के निबंधों का उद्देश्य पाठकों को सोचने और समझने के लिए प्रेरित करना है। निबंध के प्रत्येक अनुच्छेद में तर्कपूर्ण ढंग से विचार प्रस्तुत किए जाते हैं, ताकि निबंध के प्रारंभ से अंत तक क्रम बना रहे। रामचंद्र शुक्ल के 'श्रद्धा और भक्ति', 'क्रोध', 'करुणा' आदि निबंध विचारात्मक हैं।

    4.भावात्मक निबंध :- इस प्रकार के निबंधों में भावों की अधिकता रहती है, जिससे पाठक रसात्मकता अनुभव करता है। सरदार पूर्णसिंह के 'मजदूरी और प्रेम', 'सच्ची वीरता', 'कन्यादान'. 'आचरण की सभ्यता' आदि भावात्मक निबंध हैं । वियोगी हरि के 'विश्व-मंदिर' और 'दीनों के प्रति प्रेम' भी भावात्मक निबंध हैं।

    5. ललित निबंध :- ललित निबंधों में वर्णन. चिंतन, संवेदनशीलता और अनुभूति का समन्वय रहता है। पाठक इनमें कहानी, नाटक, कविता जैसा आनंद लेता है । ललित निबंधों में लेखक के व्यक्तित्व का प्रभाव अधिक रहता है । स्वच्छंदता, कल्पना और लोक जीवन से लगाव, ललित निबंध की विशेषताएँ हैं । हजारी प्रसाद द्विवेदी के 'अशोक कै फूल', 'आम फिर बौरा गए' विद्यानिवास मिश्र के 'मेरे राम का मुकुट भीग रहा है ', 'आँगन का पंछी और बनजारा मन', कुबेरनाथ राय का 'रस आखेटक' आदि निबंध इसी कोटि के हैं।


    हिंदी निबंध की विभिन्न शैलियाँ

    हिंदी निबंध में निम्नलिखित शैलियों का प्रयोग मिलता है :

    1. व्यास शैली :- व्यास का अर्थ है-विस्तार। व्यास शैली में विषय को अनेक खंडों में विभाजित करके विस्तार से समझाया जाता है। वर्णनात्मक एवं विवरणात्मक निबंधों में यह शैली उपयुक्त रहती है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के 'शिरीष के फूल' निबंध में व्यास शैली है। विचारात्मक निबंधों में भी यह शैली मिलती है। रामचंद्र शुक्ल के 'श्रद्धा और भक्ति' निबंध में भी व्यास शैली है।

    2. समास शैली :- समास शैली में विषय संक्षेप में कहा जाता है। विषय के विस्तार की अपेक्षा, थोड़े शब्दों में अधिक अर्थ भरने का प्रयास होता है । लेखक किसी अर्थ को कई वाक्यों में कहने की अपेक्षा एक-दो वाक्य में ही समझाने का प्रयास करता है। रामचंद्र शुक्ल के 'काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था ', 'रसात्मक बोध के विविध रूप' आदि निबंध समास शैली में लिखे गए हैं। समास शैली में विचारों की प्रमुखता रहती है।

    3. धारा-प्रवाह शैली :- इस शैली में वाक्य-संरचना तीव्र गति से बढ़ती प्रतीत होती है । भावाकुल निबंधकार इस प्रकार की भाषा का संयोजन करता है जो नदी की धारा की तरह बहती मालूम पड़ती है। भावात्मक निबंधों में इस शैली का प्रयोग अधिक होता है। पूर्णसिंह के मजदूरी और प्रेम', 'आचरण की सभ्यता', 'सच्ची वीरता', 'कन्यादान' तथा 'पवित्रता ' निबंध धारा - प्रवाह शैली में लिखे गए हैं। वियोगी हरि के 'विश्व - मंदिर' और 'दीनों के प्रति प्रेम' निबंध इसी शैली के हैं ।

    4. तरंग शैली :- तरंग शैली में भावों की अभिव्यक्ति अटक-अटककर आगे बढ़ती है। जब लेखक किसी भाव को सुनिश्चित रूप में प्रकट न करके विभिन्न भावों के घात-प्रतिघात से प्रकट करता है तो तरंग शैली का प्रयोग होता है । हजारी प्रसाद द्विवदी के 'अशोक के फूल' तथा 'आम फिर बौरा गए' निबंध तरंग शैली में लिखे गए हैं।


    5. विक्षेप शैली :- जब भावों को प्रकट करने में अवरोध अनुभव होता है अर्थात् भावों की अभिव्यक्ति अनियमित हो जाती हैं, तब विक्षेप शैली का प्रयोग होता है । बालमुकुंद गुप्त के 'शिवशंभू के चिट्ठे' विक्षेप शैली में लिखे गए निबंध हैं।


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