भाषा और उसके प्रकार, महत्त्व और विशेषताएं, हिंदी व अन्य भाषाओ का विकास और लिपि क्या होती है?





    भाषा की परिभाषा

    भाषा वह साधन है, जिसके द्वारा मनुष्य बोलकर, सुनकर, लिखकर व पढ़कर अपने मन के भावों या विचारों का आदान-प्रदान करता है। 

    दूसरे शब्दों में- जिसके द्वारा हम अपने भावों को लिखित अथवा कथित रूप से दूसरों को समझा सके और दूसरों के भावो को समझ सके उसे भाषा कहते है।

    सरल शब्दों में- सामान्यतः भाषा मनुष्य की सार्थक व्यक्त वाणी को कहते है।


    डॉ शयामसुन्दरदास के अनुसार - मनुष्य और मनुष्य के बीच वस्तुओं के विषय अपनी इच्छा और मति का आदान प्रदान करने के लिए व्यक्त ध्वनि-संकेतो का जो व्यवहार होता है, उसे भाषा कहते है। 


    डॉ बाबुराम सक्सेना के अनुसारजिन ध्वनि-चिंहों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार-बिनिमय करता है उसको समष्टि रूप से भाषा कहते है।


    आदिमानव अपने मन के भाव एक-दूसरे को समझाने व समझने के लिए संकेतों का सहारा लेते थे, परंतु संकेतों में पूरी बात समझाना या समझ पाना बहुत कठिन था। इस असुविधा को दूर करने के लिए उसने अपने मुख से निकली ध्वनियों को मिलाकर शब्द बनाने आरंभ किए और शब्दों के मेल से बनी- भाषा।


    भाषा शब्द संस्कृत के भाष धातु से बना है। जिसका अर्थ है- बोलना। कक्षा में अध्यापक अपनी बात बोलकर समझाते हैं और छात्र सुनकर उनकी बात समझते हैं। बच्चा माता-पिता से बोलकर अपने मन के भाव प्रकट करता है और वे उसकी बात सुनकर समझते हैं। इसी प्रकार, छात्र भी अध्यापक द्वारा समझाई गई बात को लिखकर प्रकट करते हैं और अध्यापक उसे पढ़कर मूल्यांकन करते हैं। सभी प्राणियों द्वारा मन के भावों का आदान-प्रदान करने के लिए भाषा का प्रयोग किया जाता है। पशु-पक्षियों की बोलियों को भाषा नहीं कहा जाता।


    भाषा के प्रकार

    भाषा के तीन रूप होते है-

    1. मौखिक भाषा 
    2. लिखित भाषा 
    3. सांकेतिक भाषा


    (1) मौखिक भाषा 

    विद्यालय में वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। प्रतियोगिता में वक्ताओं ने बोलकर अपने विचार प्रकट किए तथा श्रोताओं ने सुनकर उनका आनंद उठाया। यह भाषा का मौखिक रूप है। इसमें वक्ता बोलकर अपनी बात कहता है व श्रोता सुनकर उसकी बात समझता है।

    इस प्रकार, भाषा का वह रूप जिसमें एक व्यक्ति बोलकर विचार प्रकट करता है और दूसरा व्यक्ति सुनकर उसे समझता है, मौखिक भाषा कहलाती है।

    दूसरे शब्दों में- जिस ध्वनि का उच्चारण करके या बोलकर हम अपनी बात दुसरो को समझाते है, उसे मौखिक भाषा कहते है।

    उदाहरण:

    टेलीफ़ोन, दूरदर्शन, भाषण, वार्तालाप, नाटक, रेडियो आदि।

    मौखिक या उच्चरित भाषा, भाषा का बोल-चाल का रूप है। उच्चरित भाषा का इतिहास तो मनुष्य के जन्म के साथ जुड़ा हुआ है। मनुष्य ने जब से इस धरती पर जन्म लिया होगा तभी से उसने बोलना प्रारंभ कर दिया होगा तभी से उसने बोलना प्रारंभ कर दिया होगा। इसलिए यह कहा जाता है कि भाषा मूलतः मौखिक है।

    यह भाषा का प्राचीनतम रूप है। मनुष्य ने पहले बोलना सीखा। इस रूप का प्रयोग व्यापक स्तर पर होता है।

    मौखिक भाषा की कुछ प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

    (1) यह भाषा का अस्थायी रूप है।

    (2) उच्चरित होने के साथ ही यह समाप्त हो जाती है।

    (3) वक्ता और श्रोता एक-दूसरे के आमने-सामने हों प्रायः तभी मौखिक भाषा का प्रयोग किया जा सकता है।

    (4) इस रूप की आधारभूत इकाई 'ध्वनि' है। विभिन्न ध्वनियों के संयोग से शब्द बनते हैं जिनका प्रयोग वाक्य में तथा विभिन्न वाक्यों का प्रयोग वार्तालाप में किया जाता हैं।

    (5) यह भाषा का मूल या प्रधान रूप हैं।


    (2) लिखित भाषा 

    अमन छात्रावास में रहता है। उसने पत्र लिखकर अपने माता-पिता को अपनी कुशलता व आवश्यकताओं की जानकारी दी। माता-पिता ने पत्र पढ़कर जानकारी प्राप्त की। यह भाषा का लिखित रूप है। इसमें एक व्यक्ति लिखकर विचार या भाव प्रकट करता है, दूसरा पढ़कर उसे समझता है।

    इस प्रकार भाषा का वह रूप जिसमें एक व्यक्ति अपने विचार या मन के भाव लिखकर प्रकट करता है और दूसरा व्यक्ति पढ़कर उसकी बात समझता है, लिखित भाषा कहलाती है।

    दूसरे शब्दों में- जिन अक्षरों या चिन्हों की सहायता से हम अपने मन के विचारो को लिखकर प्रकट करते है, उसे लिखित भाषा कहते है।

    उदाहरण:

    पत्र, लेख, पत्रिका, समाचार-पत्र, कहानी, जीवनी, संस्मरण, तार आदि।

    उच्चरित भाषा की तुलना में लिखित भाषा का रूप बाद का है। मनुष्य को जब यह अनुभव हुआ होगा कि वह अपने मन की बात दूर बैठे व्यक्तियों तक या आगे आने वाली पीढ़ी तक भी पहुँचा दे तो उसे लिखित भाषा की आवश्यकता हुई होगी। अतः मौखिक भाषा को स्थायित्व प्रदान करने हेतु उच्चरितध्वनि प्रतीकों के लिए 'लिखित-चिह्नों' का विकास हुआ होगा।

    इस तरह विभिन्न भाषा-भाषी समुदायों ने अपनी-अपनी भाषिक ध्वनियों के लिए तरह-तरह की आकृति वाले विभिन्न लिखित-चिह्नों का निर्माण किया और इन्हीं लिखित-चिह्नों को 'वर्ण' (letter) कहा गया। अतः जहाँ मौखिक भाषा की आधारभूत इकाई ध्वनि (Phone) है तो वहीं लिखित भाषा की आधारभूत इकाई 'वर्ण' (letter) हैं।

    लिखित भाषा की कुछ प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

    (1) यह भाषा का स्थायी रूप है।

    (2) इस रूप में हम अपने भावों और विचारों को अनंत काल के लिए सुरक्षित रख सकते हैं।

    (3) यह रूप यह अपेक्षा नहीं करता कि वक्ता और श्रोता आमने-सामने हों।

    (4) इस रूप की आधारभूत इकाई 'वर्ण' हैं जो उच्चरित ध्वनियों को अभिव्यक्त (represent) करते हैं।

    (5) यह भाषा का गौण रूप है।

    इस तरह यह बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि भाषा का मौखिक रूप ही प्रधान या मूल रूप है। किसी व्यक्ति को यदि लिखना-पढ़ना (लिखित भाषा रूप) नहीं आता तो भी हम यह नहीं कह सकते कि उसे वह भाषा नहीं आती। किसी व्यक्ति को कोई भाषा आती है, इसका अर्थ है- वह उसे सुनकर समझ लेता है तथा बोलकर अपनी बात संप्रेषित कर लेता है।


    (3) सांकेतिक भाषा 

    जिन संकेतो के द्वारा बच्चे या गूँगे अपनी बात दूसरों को समझाते है, वे सब सांकेतिक भाषा कहलाती है।
    दूसरे शब्दों में- जब संकेतों (इशारों) द्वारा बात समझाई और समझी जाती है, तब वह सांकेतिक भाषा कहलाती है।

    जैसे- चौराहे पर खड़ा यातायात नियंत्रित करता सिपाही, मूक-बधिर व्यक्तियों का वार्तालाप आदि।
    (बिंदु :-इसका अध्ययन व्याकरण में नहीं किया जाता।)


    भारत की प्रमुख भाषाएँ

    भारतीय संविधान में 22 भारतीय भाषाओं को मान्यता प्रदान की गई हैं । 

    ये भाषाएँ है :-

    संस्कृत,हिन्दी,सिन्धी,तमिल,तेलुगू,मलयालम,गुजराती,मराठी,पंजाबी,कोंकड़ी,कश्मीरी,उर्दू,उड़िया,असमिया,कन्नड़,बांग्ला,नेपाली,बोडो,डोगरी,मैथिली,संथाली और मणिपुरी आदि ।

    नोट : अनुच्छेद 343.

    संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी, संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा।

    भाषा की प्रकृति या स्वरूप 

    भाषा सागर की तरह सदा चलती-बहती रहती है। भाषा के अपने गुण या स्वभाव को भाषा की प्रकृति कहते हैं। हर भाषा की अपनी प्रकृति, आंतरिक गुण-अवगुण होते है। भाषा एक सामाजिक शक्ति है, जो मनुष्य को प्राप्त होती है। मनुष्य उसे अपने पूवर्जो से सीखता है और उसका विकास करता है। 

    यह परम्परागत और अर्जित दोनों है। जीवन्त भाषा 'बहता नीर' की तरह सदा प्रवाहित होती रहती है। भाषा के दो रूप है- कथित और लिखित। हम इसका प्रयोग कथन के द्वारा, अर्थात बोलकर और लेखन के द्वारा (लिखकर) करते हैं। देश और काल के अनुसार भाषा अनेक रूपों में बँटी है।

     

    भाषा और लिपि

    लिपि का शाब्दिक अर्थ है-'लीपना' या 'पोतना' विचारो का लीपना अथवा लिखना ही लिपि कहलाता है। 

    दूसरे शब्दों में- भाषा की उच्चरित/मौखिक ध्वनियों को लिखित रूप में अभिव्यक्त करने के लिए निश्चित किए गए चिह्नों या वर्णों की व्यवस्था को लिपि कहते हैं। 

    हिंदी और संस्कृत भाषा की लिपि देवनागरी है। अंग्रेजी भाषा की लिपि रोमन पंजाबी भाषा की लिपि गुरुमुखी और उर्दू भाषा की लिपि फारसी है। 

    नीचे की तालिका में विश्व की कुछ भाषाओं और उनकी लिपियों के नाम दिए जा रहे हैं-

    क्रम भाषा लिपियाँ

    1. हिंदी, संस्कृत, मराठी, नेपाली, बोडो : देवनागरी

    2. अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश, इटेलियन, पोलिश, मीजो : रोमन

    3. पंजाबी : गुरुमुखी

    4. उर्दू, अरबी, फारसी : फारसी

    5. रूसी, बुल्गेरियन, चेक, रोमानियन : रूसी

    6. बँगला : बँगला

    7. उड़िया : उड़िया

    8. असमिया : असमिया

    आज विश्व में कुल 2796 भाषाएं और 400 से लिपियाँ हैँ।


    भाषा और बोली

    बोली : वह भाषा जो किसी विशेष स्थान पर इस्तेमाल की जाती है, उसे बोली कहते हैं। और बोली भाषा का प्रारंभिक रूप कहलाती है।

    उदाहरण: अवधी, भोजपुरी, मगही, मैथिली और छत्तीसगढ़ी आदि

    भाषा और बोलियों में अंतर :-


    1. भाषा का क्षेत्र व्यापक हैँ (सामाजिक, साहित्यिक, राजनैतिक, व्यापारिक, ऐतिहासिक आदि ) जबकि बोली का क्षेत्र व्यापक नहीं हैँ क्योकि किसी विशेष स्थान पर इस्तेमाल की जाती हैँ ।

    2. भाषा का अपना लिखित और संघठित व्याकरण होता हैँ जबकि बोलियों का कोई व्याकरण नहीं होता है ।

    3. एक भाषा में कई बोलियाँ हो सकती हैँ, जबकि एक बोली में कई भाषाएं नहीं हो सकती हैँ ।

    4. भाषा का प्रयोग कार्यालयों और संस्थानों में औपचारिक तरीके से किया जाता हैँ, जबकि बोली बोलते समय अनौपचारिक प्रतीत होता हैँ ।

    जैसे : हिंदी भाषा में      : आप कैसे हैँ?
            भोजपुरी बोली में : तू कैसन बारु (आप कैसे हैँ?)

    नोट : जब कोई बोली विकास करते-करते भाषा क़ी सभी मान्यताओ को प्राप्त कर लेती हैँ, तब वह बोली न रहकर भाषा बन जाती हैँ जैसे :- खड़ी बोली 

    हिन्दी भाषा का विकास

    हिन्दी भाषा का इतिहास लगभग एक हजार वर्ष पुराना माना गया है। सामान्यतः प्राकृत की अन्तिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आविर्भाव स्वीकार किया जाता है। उस समय अपभ्रंश के कई रूप थे। 

    राजस्थानी हिन्दी' का विकास 'अपभ्रंश' से हुआ। 

    'पश्चिमी हिन्दी' का विकास 'शौरसेनी' से हुआ। 

    'पूर्वी हिन्दी' का विकास 'अर्द्धमागधी' से हुआ। 

    'बिहारी हिन्दी' का विकास 'मागधी' से हुआ। 

    'पहाड़ी हिन्दी' का विकास 'खस' से हुआ।


    भाषा स्वरूप का विस्तार


    (1) बोलियों के रूप में :- जिन स्थानीय बोलियों का प्रयोग साधारण अपने समूह या घरों में करती है, उसे बोली (dialect) कहते है। किसी भी देश में बोलियों की संख्या अनेक होती है। ये घास-पात की तरह अपने आप जन्म लेती है और किसी क्षेत्र विशेष में बोली जाती है। हिन्दी की प्रमुख बोलियाँ हैं -


    बिहारी हिंदी से विकसित बोलियाँ :- मगही, मैथिली, भोजपुरी

    पूर्वी हिंदी से विकसित बोलियाँ :- अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी

    पश्चिमी हिंदी से विकसित बोलियाँ :- ब्रज, खड़ी बोली, हरियाणवी, बुंदेली, कन्नौजी

    राजस्थानी हिंदी से विकसित बोलियाँ :- मेवाड़ी, मेवाती, मारवाड़ी, हाड़ौती

    पहाड़ी हिंदी से विकसित बोलियाँ :- मंडियाली (हिमाचल), गढ़वाली, कुमाऊनी


    (2) मानक भाषा के रूप में :- मानक भाषा व्याकरण से नियन्त्रित होती है। इसका प्रयोग शिक्षा, शासन और साहित्य में होता है। बोली को जब व्याकरण से परिष्कृत किया जाता है, तब वह परिनिष्ठित भाषा बन जाती है। मानक भाषा विद्वानों व शिक्षाविदों द्वारा भाषा में एकरूपता लाने के लिए भाषा के जिस रूप को मान्यता दी जाती है, वह मानक भाषा कहलाती है। भाषा में एक ही वर्ण या शब्द के एक से अधिक रूप प्रचलित हो सकते हैं। ऐसे में उनके किसी एक रूप को विद्वानों द्वारा मान्यता दे दी जाती है; जैसे :-

    गयी - गई (मानक रूप)

    ठण्ड - ठंड (मानक रूप)

    अन्त - अंत (मानक रूप)

    रव - ख (मानक रूप)

    शुद्ध शुदध (मानक रूप)


    (3) मातृभाषा के रूप में :- मातृभाषा यानी जिस भाषा मे माँ सपने देखती है या विचार करती है वही भाषा उस बच्चे की मातृभाषा होगी। इसलिए इसे मातृभाषा कहते हैं, पितृभाषा नहीं। मातृभाषा, किसी भी व्यक्ति की सामाजिक एवं भाषाई पहचान होती है। जन्म लेने के बाद मानव जो प्रथम भाषा सीखता है उसे उसकी मातृभाषा कहते हैं। मातृभाषा सीखने, समझने एवं ज्ञान की प्राप्ति में सरल होती है।


    (4) संपर्क भाषा के रूप में :- उस भाषा को सम्पर्क भाषा कहते हैं जो किसी क्षेत्र में सामान्य रूप से किसी भी दो ऐसे व्यक्तियों के बीच प्रयोग हो जिनकी मातृभाषाएँ अलग हैं। इसे कई भाषाओं में लिंगुआ फ़्रैंका' कहते हैं। इसे सेतु-भाषा, व्यापार भाषा, सामान्य भाषा या वाहन भाषा भी कहते हैं। मानव इतिहास में सम्पर्क भाषाएँ उभरती रही हैं।


    (5) राष्ट्रभाषा के रूप में :- जब कोई भाषा किसी राष्ट्र के अधिकांश प्रदेशों के बहु द्वारा बोली व समझी जाती है, तो वह राष्ट्रभाषा बन जाती है। दूसरे शब्दों में, वह भाषा जो देश के अधिकतर निवासियों द्वारा प्रयोग में लाई जाती है, राष्ट्रभाषा कहलाती है। सभी देशों की अपनी-अपनी राष्ट्रभाषा होती है; जैसे- अमरीका अंग्रेजी, चीन-चीनी, जापान जापानी, रूस रूसी आदि। भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी है। यह लगभग 70-75 प्रतिशत लोगों द्वारा प्रयोग में लाई जाती है ।


    (6) राजभाषा के रूप में :- राजभाषा वह भाषा जो देश के कार्यालयों व राज-काज में प्रयोग की जाती है, राजभाषा कहलाती है। जब भाषा व्यापक शक्ति ग्रहण कर लेती हैं, तब आगे चलकर राजनीतिक और सामाजिक शक्ति के आधार पर राजभाषा या राष्ट्रभाषा का स्थान पा लेती है। ऐसी भाषा सभी सीमाओं को लाँघकर अधिक व्यापक और विस्तृत क्षेत्र में विचार विनिमय का साधन बनकर सारे देश की भावात्मक एकता में सहायक होती है। भारत में पन्द्रह विकसित भाषाएँ है, पर हमारे देश के राष्ट्रीय नेताओं ने हिन्दी भाषा को राजभाषा का गौरव प्रदान किया है। भारत की राजभाषा अंग्रेजी तथा हिंदी दोनों हैं।


    देवनागरी लिपि

    देवनागरी लिपि एक वैज्ञानिक लिपि है। 'हिन्दी' और 'संस्कृत' देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं। 'देवनागरी' लिपि का विकास 'ब्राही लिपि' से हुआ, जिसका सर्वप्रथम प्रयोग गुजरात नरेश जयभट्ट के एक शिलालेख में मिलता है। 8वीं एवं 9वीं सदी में क्रमशः राष्ट्रकूट नरेशों तथा बड़ौदा के ध्रुवराज ने अपने देशों में इसका प्रयोग किया था। महाराष्ट्र में इसे 'बालबोध' के नाम से संबोधित किया गया। 

    विद्वानों का मानना है कि ब्राह्मी लिपि से देवनागरी का विकास सीधे-सीधे नहीं हुआ है, बल्कि यह उत्तर शैली की कुटिल, शारदा और प्राचीन देवनागरी के रूप में होता हुआ वर्तमान देवनागरी लिपि तक पहुँचा है। प्राचीन नागरी के दो रूप विकसित हुए- पश्चिमी तथा पूर्वी। 


    इन दोनों रूपों से विभिन्न लिपियों का विकास इस प्रकार हुआ


    प्राचीन देवनागरी लिपि :- 

    पश्चिमी प्राचीन देवनागरी- गुजराती, महाजनी, राजस्थानी, महाराष्ट्री, नागरी

    पूर्वी प्राचीन देवनागरी- कैथी, मैथिली, नेवारी, उड़िया, बँगला, असमिया

    देवनागरी लिपि पर तीन भाषाओं का बड़ा महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। 

    (i) फारसी प्रभावपहले देवनागरी लिपि में जिह्वामूलीय ध्वनियों को अंकित करने के चिह्न नहीं थे, जो बाद में फारसी से प्रभावित होकर विकसित हुए- क. ख. ग. ज. फ। 

    (ii) बांग्ला-प्रभाव : गोल-गोल लिखने की परम्परा बांग्ला लिपि के प्रभाव के कारण शुरू हुई। 

    (iii) रोमन-प्रभावइससे प्रभावित हो विभिन्न विराम-चिह्नों, जैसे- अल्प विराम, अर्द्ध विराम, प्रश्नसूचक चिह्न, विस्मयसूचक चिह्न, उद्धरण चिह्न एवं पूर्ण विराम में 'खड़ी पाई' की जगह 'बिन्दु' (Point) का प्रयोग होने लगा।

    देवनागरी लिपि - मीरा घर गई है। 

    रोमन लिपि - meera ghar gayi hai.


    ब्राह्मी :-

    उत्तरी शैली- गुप्त लिपि, कुटिल लिपि, शारदा लिपि, प्राचीन नागरी लिपि


    प्राचीन नागरी लिपि :-

    पूर्वी नागरी- मैथली, कैथी, नेवारी, बँगला, असमिया आदि। 

    पश्चिमी नागरी- गुजराती, राजस्थानी, महाराष्ट्री, महाजनी, नागरी या देवनागरी। 


    दक्षिणी शैली :-

    (1) आ (ा), ई (ी), ओ (ो) और औ (ौ) की मात्राएँ व्यंजन के बाद जोड़ी जाती हैं (जैसे- का, की, को, कौ); इ (ि) की मात्रा व्यंजन के पहले, ए (े) और ऐ (ै) की मात्राएँ व्यंजन के ऊपर तथा उ (ु), ऊ (ू),
    ऋ (ृ) मात्राएँ नीचे लगायी जाती हैं।

    (2) 'र' व्यंजन में 'उ' और 'ऊ' मात्राएँ अन्य व्यंजनों की तरह न लगायी जाकर इस तरह लगायी जाती हैं-
    र् +उ =रु । र् +ऊ =रू ।

    (3)अनुस्वार (ां) और विसर्ग (:) क्रमशः स्वर के ऊपर या बाद में जोड़े जाते हैं; 
    जैसे- अ+ां =अं। क्+अं =कं। अ+:=अः। क्+अः=कः।

    (4) स्वरों की मात्राओं तथा अनुस्वार एवं विसर्गसहित एक व्यंजन वर्ण में बारह रूप होते हैं। इन्हें परम्परा के अनुस्वार 'बारहखड़ी' कहते हैं। 
    जैसे- क का कि की कु कू के कै को कौ कं कः। 
    व्यंजन दो तरह से लिखे जाते हैं- खड़ी पाई के साथ और बिना खड़ी पाई के।

    (5) ङ छ ट ठ ड ढ द र बिना खड़ी पाईवाले व्यंजन हैं और शेष व्यंजन (जैसे- क, ख, ग, घ, च इत्यादि) खड़ी पाईवाले व्यंजन हैं। सामान्यतः सभी वर्णो के सिरे पर एक-एक आड़ी रेखा रहती है, जो ध, झ और भ में कुछ तोड़ दी गयी है।

    (6) जब दो या दो से अधिक व्यंजनों के बीच कोई स्वर नहीं रहता, तब दोनों के मेल से संयुक्त व्यंजन बन जाते हैं। 
    जैसे- क्+त् =क्त । त्+य् =त्य । क्+ल् =क्ल ।

    (7) जब एक व्यंजन अपने समान अन्य व्यंजन से मिलता है, तब उसे 'द्वित्व व्यंजन' कहते हैं।
    जैसे- क्क (चक्का), त्त (पत्ता), त्र (गत्रा), म्म (सम्मान) आदि।


    भाषा का महत्व


    किसी भी व्यक्ति के भाषा बहुत महत्व रखती है। भाषा के क्षेत्र व्यापक होने के साथ-साथ परस्पर अंतःसंबंधित हैं। भाषा विचार विनमय का प्रमुख साधन है। भाषा विचारों के आदान-प्रदान का सर्वाधिक उपयोगी साधन है। परस्पर बातचीत लेकर मानव समाज की सभी गतिविधियों में भाषा की आवश्यकता पड़ती है। संकेतों से कही गई बात में भ्रांति की संभावना रहती है, किन्तु भाषा के द्वारा हम अपनी बात स्पष्ट तथा निभ्रत रूप में दूसरों तक पहुँचा सकते हैं। भाषा का लिखित रूप भी कम उपयोगी नहीं पत्र पुस्तक, समाचार पत्र आदि का प्रयोग हम दैनिक जीवन में करते हैं। लिखित रूप में होने से पुस्तकें, दस्तावेज आदि लम्बे समय तक सुरक्षित रह सकते हैं। रामायण, महाभारत जैसे ग्रंथ तथा ऐतिहासिक शिलालेख आज तक इसलिए सुरक्षित हैं क्योंकि वे भाषा के लिखित रूप में हैँ।

    भाषा के महत्व को निम्न बिन्दुओं के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है :-

    (1) भाषा भावाभिव्यक्ति का प्रमुख साधन है।

    (2) भाषा ज्ञान प्राप्ति का साधन है।

    (3) भाषा मानव संस्कृति व सभ्यता के विकास का साधन है।

    (4) भाषा मौलिक विचारों को संरक्षित करने का साधन है। (

    (5) भाषा मानव विकास का मूल आधार है।

    (6) भाषा वैज्ञानिक विकास का आधार है।

    (7) भाषा आर्थिक विकास का आधार है।

    (8) भाषा राष्ट्रीय एकता का आधार है।



    भाषा क़ी विशेषताएँ


    (क) यादृच्छिकता : यादृच्छिकता का अर्थ है जैसी इच्छा हो' या 'माना हुआ'। हमारी भाषा में किसी वस्तु या भाव का किसी शब्द से सहज-स्वाभाविक या तर्कपूर्ण संबंध नहीं है, वह समाज की इच्छानुसार मात्र माना हुआ संबंध है। यदि सहज स्वाभाविक संबंध होता तो सभी भाषाओं में एक वस्तु के लिए एक ही शब्द होता ।

    एक विशेष प्रकार के फूल को हम इसलिए कहते हैं कि हम परंपरागत रूप से उसको गुलाब कहते आ रहे हैं।

    चिड़िया को हम खग ही कहें यह आवश्यक नहीं है उसे हम पक्षी भी कह सकते है। उसमें स्वत: ऐसा गुण नहीं है जिसके कारण हमें उसे खग कहना पड़ता हो। वह आकाशगामी है। इसलिए उसे खग कहते हैं यह तर्क भाषा की यादृच्छिकता का खंडन नहीं करता। यदि ऐसा ही है तो हम वायुयान और अंतरिक्ष यात्रियों को भी खग लगते। हम पक्षियों को खग इसलिए कहते हैं क्योंकि परंपरागत अनुसार खग में इसी शब्द का समावेश करते रहे हैं।

    (ख) सृजनात्मकता (उत्पादन क्षमता) : भाषा स्वरों और व्यंजनों के रूप में उपलब्ध सीमित साधनों का उपयोग कर असीमित वाक्य रचना कर सकती है किसी भी भाषा का अंतिम वाक्य आज तक बोला अथवा लिखा नहीं गया है।


    (ग) द्वयात्मकता : अभिरचना किसी संदेश को व्यक्त करने की प्रक्रिया पर ध्यान देने से स्पष्ट हो जाता है कि उसके दो निश्चित स्तर हैं। पहले स्तर का संबंध अर्थ से है । अभिव्यक्ति के दूसरे स्तर का संबंध अभिव्यक्ति माध्यम ( ध्वनि) की इकाइयों से रहता है।

    उदाहरण के लिए अगर विचार की न्यूनतम इकाई जल है तब उसकी अभिव्यक्ति की न्यूनतम इकाई है ज् + अ + ल् + अ ध्वनि की इन इकाइयों का अपना कोई अर्थ नहीं होता। केवल इनका अपना रूप और प्रकार्य होता है और यह अर्थभेदक होती हैं।

    पहले स्तर को रूपिम कहा जाता है दूसरे को स्वनिम कहते हैं यह अभिलक्षण इस और संकेत करता है कि मानव भाषा एक साथ दो अभिरचनाओं के प्रतिफलन का परिणाम है।


    (घ) अंतर्विनियमता : भाषा का अस्तित्व तभी संभव है जब कोई एक वक्ता और कोई एक श्रोता हो। साथ ही वक्ता और श्रोता की भूमिका भी बदलती रहनी चाहिए।


    (ङ) विस्थापन : भाषा का एक प्रमुख लक्षण यह है कि हम एक ही समय में भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालों के संबंध में बातचीत कर सकते हैं। मनुष्य तथ्यों के अतिरिक्त काल्पनिक चीजों के बारे में भी बातें कर लेता है। साहित्य का आधार यह कल्पना ही है।


    (च) विविक्तता :  मानव भाषा का स्वरूप ऐसा नहीं है जो पूरा अविच्छिन्न रूप से एक हो । वह तत्वतः कई घटको या इकाइयों में विभाज्य है।

    उदाहरण के लिए वाक्य एकाधिक शब्दों से बनता है और शब्द एकाधिक ध्वनियों से यह विभाज्यता अन्य जीवों की भाषा में नहीं मिलती।


    (छ) मौखिक श्रव्य माध्यम : इसमें मौखिक श्रव्य दोनों माध्यमों का उपयोग करना पड़ता हैं। यह अभिलक्षण इस ओर भी संकेत करता है कि भाषा मूलतः मौखिक होती है। उसका लिखित रूप इस मौखिक रूप पर ही आधारित होता है।

    भाषा की इसी विशेषता के कारण गार्ड का झंडी हिलाना, मधुमक्खियों का नृत्य करके संप्रेषण करना आदि भाषा की श्रेणी में नहीं आ सकते।

    (ज) परिवर्तनशीलता : कुत्ते पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही प्रकार की भाषा का प्रयोग करते आ रहे हैं। संस्कृत का कर्म, प्राकृत काल में कम्म हो गया और आधुनिक युग में काम


    (झ) विशेषज्ञता : भाषा का यह है वैशिष्ट्य है कि अन्य कार्य करते हुए भी संप्रेषण प्रक्रिया में लिप्त रहा जा सकता है। मानव भाषा प्रयोग का इतना अभ्यस्त हो जाता है कि अन्य किसी भी कार्य से भाषा में व्यवधान उत्पन्न नहीं होता।

    उदाहरण के लिए स्वेटर बुनती तथा खाना बनाती हुई महिला अन्य कामों में भी लगी र के साथ-साथ आसानी से बातचीत भी करती रहती है।


    (ञ) अनुकरण ग्राह्यता : जन्म से कोई व्यक्ति भाषा नहीं जानता वह अनुकरण के कारण ही भाषा सीखता है और उसका प्रयोग करता है


    (ट) सांस्कृतिक संचरण अथवा परंपरा : किसी हिंदी भाषी बच्चे को यदि प्रारंभ से ही अंग्रेजी बोलने वाले समाज में रखा जाए तो वह अंग्रेजी ही सीखेगा हिंदी नहीं।


    (ठ) वाक्छल :  कभी कभी किसी भाषा का वाक्य व्याकरणिक दृष्टि से तो शुद्ध हो सकता है किंतु यह आवश्यक नहीं है कि वह वाक्य अर्थ की दृष्टि से भी शुद्ध हो। जैसे वह पत्थर से पेड़ को सींचता है।


    अध्ययन का परीक्षण :- भाषा प्रश्नोत्तरी 

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