अलंकार किसे कहते हैँ? | अलंकार की परिभाषा | अलंकार के भेद उदाहरण सहित



    अलंकार (Figure of speech) 


    जिस प्रकार शरीर की सुन्दरता को बढ़ाने के लिए आभूषणों का प्रयोग किया जाता है, उसी प्रकार कविता में सौन्दर्य उत्पन्न करने के लिए अलंकारों का प्रयोग किया जाता है । दूसरे शब्दों में जिस प्रकार आभूषण शरीर की शोभा बढाते हैं, उसी प्रकार अलंकार साहित्य या काव्य को सुंदर व रोचक बनाते हैं। अलंकारों के बारे में कवि केशवदास ने कहा है, कि-
    जदपि सुजाति सुलक्षणी, सुबरन सरस सुवृत्त । 
    भूषण बिनु न बिराजई, कविता, बनिता, मित्र । । 
    अर्थात श्रेष्ठ गुणी होने पर भी कविता और बनिता(स्त्री) आभूषणों(अलंकारों) के बिना शोभा नही देते हैं ।

    अलंकार का महत्त्व

    काव्य में अलंकार की महत्ता सिद्ध करने वालों में आचार्य भामह, उद्भट, दंडी और रुद्रट के नाम विशेष प्रख्यात हैं। इन आचार्यों ने काव्य में रस को प्रधानता न दे कर अलंकार की मान्यता दी है। अलंकार की परिपाटी बहुत पुरानी है। काव्य-शास्त्र के प्रारम्भिक काल में अलंकारों पर ही विशेष बल दिया गया था। हिन्दी के आचार्यों ने भी काव्य में अलंकारों को विशेष स्थान दिया है।

    जब तक हिन्दी में ब्रजभाषा साहित्य का अस्तित्व बना रहा तब तक अलंकार का महत्त्व सुरक्षित रहा। आधुनिक युग में इस दिशा में लोग उदासीन हो गये हैं। काव्य में रमणीय अर्थ, पद-लालित्य, उक्ति-वैचिव्य और असाधारण भाव-सौन्दर्य की सृष्टि अलंकारों के प्रयोग से ही होती है। जिस तरह कामिनी की सौन्दर्य-वृद्धि के लिए आभूषणों की आवश्यकता पड़ती है उसी तरह कविता-कामिनी की सौन्दर्य-श्री में नये चमत्कार और नये निखार लाने के लिए अलंकारों का प्रयोग अनिवार्य हो जाता है। बिना अलंकार के कविता विधवा है। तो अलंकार कविता का श्रृंगार, उसका सौभाग्य है।

    अलंकार कवि को सामान्य व्यक्ति से अलग करता है। जो कलाकार होगा वह जाने या अनजाने में अलंकारों का प्रयोग करेगा ही। इनका प्रयोग केवल कविता तक सीमित नहीं वरन् इनका विस्तार गद्य में भी देखा जा सकता है। इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि अलंकार कविता की शोभा और सौन्दर्य है, जो शरीर के साथ भाव को भी रूप की मादकता प्रदान करता है।

    अलंकार के भेद

    अलंकार के तीन भेद होते है:-

    (1) शब्दालंकार

    (2) अर्थालंकार

    (3) उभयालंकार

    (1)शब्दालंकार :- 

    जिस अलंकार में शब्दों के प्रयोग के कारण कोई चमत्कार उत्पत्र हो जाता है वे 'शब्दालंकार' कहलाते है।

    दूसरे शब्दों में- जहाँ अलंकार शब्द पर आश्रित हों अर्थात शब्द के बदल देने पर अलंकारत्व नष्ट हो जाता हो।

    शब्दालंकार दो शब्द से मिलकर बना है। शब्द + अलंकार
    शब्द के दो रूप है- ध्वनि और अर्थ। ध्वनि के आधार पर शब्दालंकार की सृष्टी होती है। इस अलंकार में वर्ण या शब्दों की लयात्मकता या संगीतात्मकता होती है, अर्थ का चमत्कार नहीं।

    शब्दालंकार (i) कुछ वर्णगत, (ii) कुछ शब्दगत और (iii) कुछ वाक्यगत होते हैं। अनुप्रयास, यमक आदि अलंकार वर्णगत और शब्दगत है, तो लाटानुप्रयास वाक्यगत।

    शब्दालंकार के भेद

    शब्दालंकार के प्रमुख भेद है-

    (i) अनुप्रास (Alliteration) 

    (ii)यमक (Repetition of same word)

    (iii) श्लेष (Paranomasia) 

    (iv)वक्रोक्ति (The Crooked Speech)

    (i) अनुप्रास अलंकार (Alliteration) :- 

    वर्णों की आवृत्ति को अनुप्रास कहते है। 
    आवृत्ति का अर्थ किसी वर्ण का एक से अधिक बार आना है।

    अनुप्रास शब्द 'अनु' तथा 'प्रास' शब्दों के योग से बना है। 'अनु' का अर्थ है :- बार-बार तथा 'प्रास' का अर्थ है- वर्ण। जहाँ स्वर की समानता के बिना भी वर्णों की बार-बार आवृत्ति होती है, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है।
    इस अलंकार में एक ही वर्ण का बार-बार प्रयोग किया जाता है। जैसे- जन रंजन मंजन दनुज मनुज रूप सुर भूप।

    जैसे- मुदित महीपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्र बुलाए।
    यहाँ पहले पद में 'म' वर्ण की आवृत्ति और दूसरे में 'स' वर्ण की आवृत्ति हुई है। इस आवृत्ति से संगीतमयता आ गयी है।

    अनुप्रास के प्रकार

    अनुप्रास के तीन प्रकार है- 

    (क) छेकानुप्रास

    (ख) वृत्यनुप्रास

    (ग) लाटानुप्रास

    (क) छेकानुप्रास- 

    जहाँ स्वरूप और क्रम से अनेक व्यंजनों की आवृत्ति एक बार हो, वहाँ छेकानुप्रास होता है।
    इसमें व्यंजनवर्णों का उसी क्रम में प्रयोग होता है। 'रस' और 'सर' में छेकानुप्रास नहीं है। 'सर'-'सर' में वर्णों की आवृत्ति उसी क्रम और स्वरूप में हुई है, अतएव यहाँ छेकानुप्रास है। महाकवि देव ने इसका एक सुन्दर उदाहरण इस प्रकार दिया है-

    रीझि रीझि रहसि रहसि हँसि हँसि उठै 
    साँसैं भरि आँसू भरि कहत दई दई।

    यहाँ 'रीझि रीझ', 'रहसि-रहसि', 'हँसि-हँसि' और 'दई-दई' में छेकानुप्रास है, क्योंकि व्यंजनवर्णों की आवृत्ति उसी क्रम और स्वरूप में हुई है।

    दूसरा उदाहरण इस प्रकार है-

    बंदउँ गुरु पद पदुम परागा,
    सुरुचि सुवास सरस अनुरागा।

    यहाँ 'पद' और 'पदुम' में 'प' और 'द' की एकाकार आवृत्ति स्वरूपतः अर्थात् 'प' और 'प', 'द' और 'द' की आवृत्ति एक ही क्रम में, एक ही बार हुई है; क्योंकि 'पद' के 'प' के बाद 'द' की आवृत्ति 'पदुम' में भी 'प' के बाद 'द' के रूप में हुई है। 'छेक' का अर्थ चतुर है। चतुर व्यक्तियों को यह अलंकार विशेष प्रिय है।

    (ख) वृत्यनुप्रास- 

    वृत्यनुप्रास जहाँ एक व्यंजन की आवृत्ति एक या अनेक बार हो, वहाँ वृत्यनुप्रास होता है। रसानुकूल वर्णों की योजना को वृत्ति कहते हैं।

    उदाहरण इस प्रकार है-

    (i) सपने सुनहले मन भाये। 
    यहाँ 'स' वर्ण की आवृत्ति एक बार हुई है।

    (ii) सेस महेस गनेस दिनेस सुरेसहु जाहि निरन्तर गावैं। 
    यहाँ 'स' वर्ण की आवृत्ति अनेक बार हुई है। 

    छेकानुप्रास और वृत्यनुप्रास का अन्तर- 

    छेकानुप्रास में अनेक व्यंजनों की एक बार स्वरूपतः और क्रमतः आवृत्ति होती है।
    इसके विपरीत, वृत्यनुप्रास में अनेक व्यंजनों की आवृत्ति एक बार केवल स्वरूपतः होती है, क्रमतः नहीं। यदि अनेक व्यंजनों की आवृत्ति स्वरूपतः और क्रमतः होती भी है, तो एक बार नहीं, अनेक बार भी हो सकती है। उदाहरण ऊपर दिये गये हैं।

    (ग) लाटानुप्रास- 

    जब एक शब्द या वाक्यखण्ड की आवृत्ति उसी अर्थ में हो, पर तात्पर्य या अन्वय में भेद हो, तो वहाँ 'लाटानुप्रास' होता है। 
    यह यमक का ठीक उलटा है। इसमें मात्र शब्दों की आवृत्ति न होकर तात्पर्यमात्र के भेद से शब्द और अर्थ दोनों की आवृत्ति होती है।

    उदाहरण-

    तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी के पात्र समर्थ,
    तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी थी जिनके अर्थ।

    इन दो पंक्तियो में शब्द प्रायः एक-से हैं और अर्थ भी एक ही हैं। 
    प्रथम पंक्ति के 'के पात्र समर्थ' का स्थान दूसरी पंक्ति में 'थी जिनके अर्थ' शब्दों ने ले लिया है। 
    शेष शब्द ज्यों-के-त्यों हैं।

    दोनों पंक्तियों में तेगबहादुर के चरित्र में गुरुपदवी की उपयुक्तता बतायी गयी है। यहाँ शब्दों की आवृत्ति के साथ-साथ अर्थ की भी आवृत्ति हुई है।

    दूसरा उदाहरण इस प्रकार है-

    वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे। 
    इसमें 'मनुष्य' शब्द की आवृत्ति दो बार हुई है। दोनों का अर्थ 'आदमी' है। पर तात्पर्य या अन्वय में भेद है। पहला मनुष्य कर्ता है और दूसरा सम्प्रदान।

    (ii) यमक अलंकार (Repetition of same word) :-

    सार्थक होने पर भिन्न अर्थ वाले स्वर-व्यंजन समुदाय की क्रमशः आवृत्ति को यमक कहते हैं।

    साहित्यदर्पणकार विश्र्वनाथ की परिभाषा है-
    सत्यर्थे पृथगर्थाया:स्वरव्यंजनसंहते:।
    क्रमेण तेनैवावृत्ति: यमकं विनिगद्यते।।''

    'यमक' का अर्थ होता है- दो। इसलिए इस अलंकार में भित्र अर्थवाले एक ही आकार के वर्णसमूह को कम-से-कम दुहराया अवश्य जाता है। उदाहरणार्थ-

    कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।
    वा खाये बौराय नर, वा पाये बौराय।।
    यहाँ कनक शब्द की दो बार आवृत्ति हुई है जिसमे एक कनक का अर्थ है- धतूरा और दूसरे का स्वर्ण है।

    दूसरा उदाहरण-

    जिसकी समानता किसी ने कभी पाई नहीं; 
    पाई के नहीं हैं अब वे ही लाल माई के।

    यहाँ 'पाई' शब्द दो बार आया है। दोनों के क्रमशः 'पाना' और 'पैसा' दो भिन्न अर्थ हैं। 
    अतएव एक ही शब्द को बार-बार दुहरा कर भिन्न-भिन्न अर्थ प्राप्त करना यमक द्वारा ही संभव है।

    यमक और लाटानुप्रास में भेद :- 

    यमक में केवल शब्दों की आवृत्ति होती है, अर्थ बदलते जाते है; 
    पर लाटानुप्रास में शब्द और अर्थ दोनों की आवृत्ति होती है, अन्वय करने पर अर्थ बदल जाता है।
    यही मूल अन्तर है।

    (iii) श्लेष अलंकार (Paranomasia) :- 

    श्लिष्ट पदों से अनेक अर्थों के कथन को 'श्लेष' कहते है।

    'श्लेष' का अर्थ होता है- मिला हुआ, चिपका हुआ। इस अलंकार में ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है, जिनके एक नहीं वरन् अनेक अर्थ हों। 
    इनमें दो बातें आवश्यक है-(क) एक शब्द के एक से अधिक अर्थ हो, (ख)एक से अधिक अर्थ प्रकरण में अपेक्षित हों।

    उदाहरण- 

    माया महाठगिनि हम जानी।
    तिरगुन फाँस लिए कर डोलै, बोलै मधुरी बानी।

    यहाँ 'तिरगुन' शब्द में शब्द श्लेष की योजना हुई है। इसके दो अर्थ है- तीन गुण-सत्त्व, रजस्, तमस्। दूसरा अर्थ है- तीन धागोंवाली रस्सी।
    ये दोनों अर्थ प्रकरण के अनुसार ठीक बैठते है, क्योंकि इनकी अर्थसंगति 'महाठगिनि माया' से बैठायी गयी है।

    दूसरा उदाहरण-

    चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गँभीर। 
    को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर।

    यहाँ 'वृषभानुजा' और 'हलधर' श्लिष्ट शब्द हैं, जिनसे बिना आवृत्ति के ही भित्र-भित्र अर्थ निकलते हैं। 'वृषभानुजा' से 'वृषभानु की बेटी' (राधा) और 'वृषभ की बहन' (गाय) का तथा 'हलधर के बीर' से कृष्ण (बलदेव के भाई) और साँड़ (बैल के भाई) का अर्थ निकलता है।

    अर्थ और शब्द दोनों पक्षों पर 'श्लेष' के लागू होने के कारण आचार्यो में विवाद है कि इसे शब्दलंकार में रखा जाय या अर्थालंकार में।

    श्लेष के भेद

    श्लेष के दो भेद होते है- 

    (1) अभंग श्लेष

    (2) सभंग श्लेष।

    अभंग श्लेष में शब्दों को बिना तोड़े अनेक अर्थ निकलते हैं किंतु सभंग श्लेष में शब्दों को तोड़ना आवश्यक हो जाता है। यथा-

    अभंग श्लेष-

    रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। 
    पानी गये न ऊबरै, मोती, मानुस, चून।। -रहीम 
    यहाँ 'पानी' अनेकार्थक शब्द है। इसके तीन अर्थ होते हैं- कांति, सम्मान और जल। पानी के ये तीनों अर्थ उपर्युक्त दोहे में हैं और पानी शब्द को बिना तोड़े हैं; इसलिए 'अभंग श्लेष' अलंकार हैं।

    सभंग श्लेष-

    सखर सुकोमल मंजु, दोषरहित दूषण सहित। -तुलसीदास 
    यहाँ 'सखर' का अर्थ कठोर तथा दूसरा अर्थ खरदूषण के साथ (स+खर) है। यह दूसरा अर्थ 'सखर' को तोड़कर किया गया है, इसलिए यहाँ 'सभंग श्लेष' अलंकार है।

    (iv) वक्रोक्ति(The Crooked Speech)- 

    जिस शब्द से कहने वाले व्यक्ति के कथन का अभिप्रेत अर्थ ग्रहण न कर श्रोता अन्य ही कल्पित या चमत्कारपूर्ण अर्थ लगाये और उसका उत्तर दे, उसे वक्रोक्ति कहते हैं। 

    दूसरे शब्दों में- जहाँ किसी के कथन का कोई दूसरा पुरुष श्लेष या काकु (उच्चारण के ढंग) से दूसरा अर्थ करे, वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है।

    साहित्यदर्पणकार विश्र्वनाथ का कथन है-

    ''अन्यस्यान्यार्थकं वाक्यम् अन्यथा योजयेद्यति ।
    अन्यः श्लेषण काक्वा वा सा वक्रोक्तिसत्तो द्विधा।।''

    'वक्रोक्ति' का अर्थ है 'वक्र उक्ति' अर्थात 'टेढ़ी उक्ति'। कहनेवाले का अर्थ कुछ होता है, किन्तु सुननेवाला उससे कुछ दूसरा ही अभिप्राय निकाल लेता है।

    इसमें चार बातों का होना आवश्यक है-
    (क) वक्ता की एक उक्ति। 
    (ख) उक्ति का अभिप्रेत अर्थ होना चाहिए। 
    (ग) श्रोता उसका कोई दूसरा अर्थ लगाये। 
    (घ) श्रोता अपने लगाये अर्थ को प्रकट करे।

    एक उदाहरण लीजिये :-

    एक कह्यौ 'वर देत भव, भाव चाहिए चित्त'।
    सुनि कह कोउ 'भोले भवहिं भाव चाहिए ? मित्त' ।।

    किसी ने कहा-भव (शिव) वर देते हैं; पर चित्त में भाव होना चाहिये। 
    यह सुन कर दूसरे ने कहा- अरे मित्र, भोले भव के लिए 'भाव चाहिये' ?
    अर्थात शिव इतने भोले हैं कि उनके रिझाने के लिए 'भाव' की भी आवश्यकता नहीं।

    जयदेव ने इसे अर्थालंकार में स्थान दिया है- यह श्लेष तथा काकु से वाच्यार्थ बदलने की कल्पना है। 'काकु' और 'श्लेष' शब्दशक्ति के ही अंग हैं। अतः इस अलंकार को अधिकतर आचार्यो ने शब्दालंकार में ही रखा है।

    भामह ने वक्र शब्द और अर्थ की उक्ति को काम्य अलंकार मानकर और कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्य का जीवन मानकर इस अलंकार को सर्वाधिक महत्त्व दिया है। 'शब्द' और 'अर्थ' दोनों में 'वक्रोक्ति होने के कारण 'श्लेष' की तरह यहाँ भी विवाद है कि यह शब्दालंकार में परिगणित हो या अर्थालंकार में।

    रुद्रट ने इसे शब्दालंकार के रूप में स्वीकार कर इसके दो भेद किये है-

    (1) श्लेष वक्रोक्ति 
    (2) काकु वक्रोक्ति

    (1) श्लेष वक्रोक्ति- 
    एक कबूतर देख हाथ में पूछा, कहाँ अपर है ?
    उसने कहा, अपर कैसा ? वह तो उड़ गया सपर है।।

    नूरजहाँ से जहाँगीर ने पूछा कि 'अपर' अर्थात दूसरा कबूतर कहाँ है ? नूरजहाँ ने 'अपर' का अर्थ लगाया- 'पर (पंख) से हीन' और उत्तर दिया कि वह पर-हीन नहीं था, बल्कि परवाला था, इसलिए तो उड़ गया। यहाँ वक्ता के अभिप्राय से बिल्कुल भित्र अभिप्राय श्रोता के उत्तर में है।

    श्लेष वक्रोक्ति दो प्रकार के होते है-
    (i) भंगपद श्लेषवक्रोक्ति
    (ii) अभंगपद श्लेषवक्रोक्ति

    (i) भंगपद श्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण इस प्रकार है- 

    पश्र- अयि गौरवशालिनी, मानिनि, आज 
    सुधास्मित क्यों बरसाती नहीं ?

    उत्तर- निज कामिनी को प्रिय, गौ, अवशा,
    अलिनी भी कभी कहि जाती कहीं ?

    यहाँ नायिका को नायक ने 'गौरवशालिनी' कहकर मनाना चाहा है। नायिका नायक से इतनी तंग और चिढ़ी थी कि अपने प्रति इस 'गौरवशालिनी' सम्बोधन से चिढ़ गयी; क्योंकि नायक ने उसे एक नायिका का 'गौरव' देने के बजाय 'गौ' (सीधी-सादी गाय,जिसे जब चाहो चुमकारकर मतलब गाँठ लो), 'अवशा' (लाचार), 'अलिनी' (यों ही मँडरानेवाली मधुपी) समझकर लगातार तिरस्कृत किया था। नायिका ने नायक के प्रश्र का उत्तर न देकर प्रकारान्तर से वक्रोक्ति या टेढ़े ढंग की उक्ति से यह कहा, ''हाँ, तुम तो मुझे 'गौरवशालिनी' ही समझते हो !'' अर्थात, 'गौः+अवशा+अलिनी=गौरवशालिनी'।

    ''जब यही समझते हो, तो तुम्हारा मुझे 'गौरवशालिनी' कहकर पुकारना मेरे लिए कोई अर्थ नहीं रखता''- नायिका के उत्तर में यही दूसरा अर्थ वक्रता से छिपा हुआ है, जिसे नायक को अवश्य समझना पड़ा होगा। कहा कुछ जाय और समझनेवाले उसका अर्थ कुछ ग्रहण करें- इस नाते यह वक्रोक्ति है। इस वक्रोक्ति को प्रकट करनेवाले पद 'गौरवशालिनी' में दो अर्थ (एक 'हे गौरवशालिनी' और दूसरा 'गौः, अवशा, अलिनी') श्लिष्ट होने के कारण यह श्लेषवक्रोक्ति है। और, इस 'गौरवशालिनी' पद को 'गौः+अवशा+अलिनी' में तोड़कर दूसरा श्लिष्ट अर्थ लेने के कारण यहाँ भंगपद श्लेषवक्रोक्ति अलंकार है।

    (ii) अभंगपद श्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण इस प्रकार है-

    एक कबूतर देख हाथ में पूछा, कहाँ अपर है ?
    उसने कहा, 'अपर' कैसा ?वह उड़ गया, सपर है।

    यहाँ जहाँगीर ने नूरजहाँ से पूछा: एक ही कबूतर तुम्हारे पास है, अपर (दूसरा) कहाँ गया ! नूरजहाँ ने दूसरे कबूतर को भी उड़ाते हुए कहा: अपर (बे-पर) कैसा, वह तो इसी कबूतर की तरह सपर (पर वाला) था, सो उड़ गया।

    अपने प्यारे कबूतर के उड़ जाने पर जहाँगीर की चिन्ता का मख़ौल नूरजहाँ ने उसके 'अपर' (दूसरे) कबूतर को 'अपर' (बे-पर) के बजाय 'सपर' (परवाला) सिद्ध कर वक्रोक्ति के द्वारा उड़ाया। यहाँ 'अपर' शब्द को बिना तोड़े ही 'दूसरा' और 'बेपरवाला' दो अर्थ लगने से अभंगश्लेष हुआ।

    (2) काकु वक्रोक्ति- 

    कण्ठध्वनि की विशेषता से अन्य अर्थ कल्पित हो जाना ही काकु वक्रोक्ति है।
    यहाँ अर्थपरिवर्तन मात्र कण्ठध्वनि के कारण होता है, शब्द के कारण नहीं। अतः यह अर्थालंकार है। किन्तु मम्मट ने इसे कथन-शौली के कारण शब्दालंकार माना है।

    काकु वक्रोक्ति का उदाहरण है-

    कह अंगद सलज्ज जग माहीं। रावण तोहि समान कोउ नाहीं। 
    कह कपि धर्मसीलता तोरी। हमहुँ सुनी कृत परतिय चोरी।। -तुलसीदास

    रामचरितमानस के रावण-अंगद-संवाद में काकु वक्रोक्ति देखी जा सकती है।

    वक्रोक्ति और श्लेष में भेद:- 

    दोनों में अर्थ में चमत्कार दिखलाया जाता है। श्लेष में चमत्कार का आधार एक शब्द के दो अर्थ है, वक्रोक्ति में यह चमत्कार कथन के तोड़-मरोड़ या उक्ति के ध्वन्यर्थ द्वारा प्रकट होता है। मुख्य अन्तर इतना ही है।

    श्लेष और यमक में भेद:- 

    श्लेष में शब्दों की आवृत्ति नहीं होती- वहाँ एक शब्द में ही अनेक अर्थों का चमत्कार रहता है। यमक में अनेक अर्थ की व्यंजना के लिए एक ही शब्द को बार-बार दुहराना पड़ता है। 
    दूसरे शब्दों में, श्लेष में जहाँ एक ही शब्द से भिन्न-भिन्न अर्थ लिया जाता है, वहाँ यमक में भिन्न-भिन्न अर्थ के लिए शब्द की आवृत्ति करनी पड़ती है। दोनों में यही अन्तर है।

    (2) अर्थालंकार:-

    जिस अलंकार में अर्थ के प्रयोग करने से कोई चमत्कार उत्पत्र होता है वे अर्थालंकार कहलाते है।
    दूसरे शब्दों में- जहाँ अलंकार अर्थ पर आश्रित हों। अर्थालंकार में शब्द बदल देने पर भी अलंकारत्व नष्ट नहीं होता। 
    सरल शब्दों में- अर्थ को चमत्कृत या अलंकृत करनेवाले अलंकार अर्थालंकार है।

    जिस शब्द से जो अर्थालंकार सधता है, उस शब्द के स्थान पर दूसरा पर्याय रख देने पर भी वही अलंकार सधेगा, क्योंकि इस जाति के अलंकारों का सम्बन्ध शब्द से न होकर अर्थ से होता है। केशव (९६०० ई०) ने 'कविप्रिया' में दण्डी (७०० ई०)के आदर्श पर ३५ अर्थलंकार गिनाये हैं। जसवन्तसिंह (९६४३ ई०) ने 'भाषाभूषण' में ९०९अर्थलंकारों की चर्चा की है। दूल्ह (९७४३ ई०) के 'कविकुलकण्ठाभरण' जयदेव (९३ वीं शताब्दी) के 'चन्द्रालोक' और अप्पय दीक्षित (९७वीं शताब्दी) के 'कुवलयानन्द' में ९९५ अर्थलंकारों का विवेचन है।

     

    अर्थालंकार के भेद

    इसके प्रमुख भेद है-

    (1) उपमा

    (2) रूपक

    (3) उत्प्रेक्षा

    (4) अतिशयोक्ति

    (5) दृष्टान्त

    (6) उपमेयोपमा

    (7) प्रतिवस्तूपमा

    (8) अर्थान्तरन्यास

    (9) काव्यलिंग

    (10) उल्लेख

    (11) विरोधाभास

    (12) स्वभावोक्ति अलंकार

    (13) सन्देह

    (14) मालोपमा (Chain of Similes)

    (15) अनन्वय (Self Comparison)

    (16) प्रतीप (Converse)

    (17) भ्रांतिमान् (Error)

    (18) अपहुति (Concealment)

    (19) दीपक (Illuminater)

    (20) तुल्योगिता (Equal Pairing)

    (21) निदर्शना (Illustration)

    (22) समासोक्ति (Speech of Brevity)

    (23) अप्रस्तुतप्रशंसा (Indirect Discetion)

    (24) विभावना (Peculiar Causation)

    (25) विशेषोक्ति (Peculiar Allegation)

    (26) असंगति (Disconnection)

    (27) परिसंख्या (Special mention)

    (1) उपमा अलंकार(Simile) :- 

    दो वस्तुअों में समानधर्म के प्रतिपादन को 'उपमा' कहते है।

    उपमा का अर्थ है- समता, तुलना, या बराबरी। उपमा के लिए चार बातें आवश्यक है-
    (क )उपमेय- जिसकी उपमा दी जाय, अर्थात जिसका वर्णन हो रहा हो;
    (ख)उपमान- जिससे उपमा दी जाय;
    (ग)समानतावाचक पद- समता दिखानेवाले शब्द; जैसे- ज्यों, सम, सा, सी, तुल्य, नाई इत्यादि।
    (घ)समानधर्म- उपमेय और उपमान के समानधर्म को व्यक्त करनेवाला शब्द। जैसे- सुंदर, विशाल, आदि।

    उदाहरणार्थ- 

    नवल सुन्दर श्याम-शरीर की,
    सजल नीरद -सी कल कान्ति थी।

    इस उदाहरण का उपमा-विश्लेषण इस प्रकार होगा-
    श्याम-शरीर- उपमेय;
    कान्ति- उपमेय; 
    नीरद- उपमान,
    श्याम-शरीर- उपमेय; सी- समानतावाचक पद;
    कलकान्ति- समान धर्म।

    (2) रूपक अलंकार(Metaphor) :- 

    उपमेय पर उपमान का आरोप या उपमान और उपमेय का अभेद ही 'रूपक' है।

    इसके लिए तीन बातों का होना आवश्यक है-

    (क)उपमेय को उपमान का रूप देना;
    (ख)वाचक पद का लोप;
    (ग)उपमेय का भी साथ-साथ वर्णन।

    उदाहरणार्थ- 

    बीती विभावरी जाग री,
    अम्बर-पनघट में डुबो रही तारा-घट उषा-नागरी। -प्रसाद

    यहाँ अम्बर, तारा और ऊषा (जो उपमेय है) पर क्रमशः पनघट, घट और नागरी (जो उपमान है ) का आरोप हुआ है। वाचक पद नहीं आये है और उपमेय (प्रस्तुत) तथा उपमान (अप्रस्तुत) दोनों का साथ-साथ वर्णन हुआ है।

    (3) उत्प्रेक्षा अलंकार(Poetic Fancy) :- 

    उपमेय (प्रस्तुत) में कल्पित उपमान (अप्रस्तुत) की सम्भावना को 'उत्प्रेक्षा' कहते है। 
    उत्प्रेक्षा का अर्थ है, किसी वस्तु को सम्भावित रूप में देखना।

    दूसरे अर्थ में- उपमेय में उपमान को प्रबल रूप में कल्पना की आँखों से देखने की प्रक्रिया को उत्प्रेक्षा कहते है।

    सम्भावना सन्देह से कुछ ऊपर और निश्र्चय से कुछ निचे होती है। इसमें न तो पूरा सन्देह होता है और न पूरा निश्र्चय। उसमें कवि की कल्पना साधारण कोटि की न होकर विलक्षण होती है। अर्थ में चमत्कार लाने के लिए ऐसा किया जाता है। इसमें वाचक पदों का प्रयोग होता है।

    उदाहरणार्थ- 

    फूले कास सकल महि छाई। 
    जनु बरसा रितु प्रकट बुढ़ाई।।

    यहाँ वर्षाऋतु के बाद शरद् के आगमन का वर्णन हुआ है। शरद् में कास के खिले हुए फूल ऐसे मालूम होते है जैसे वर्षाऋतु का बुढ़ापा प्रकट हो गया हो। यहाँ 'कास के फूल' (उपमेय) में 'वर्षाऋतु के बुढ़ापे' (उपमान ) की सम्भावित कल्पना की गयी है। इस कल्पना से अर्थ का चमत्कार प्रकट होता है। वस्तुतः अन्त में वर्षाऋतु की गति और शक्ति बुढ़ापे की तरह शिथिल पड़ जाती है।

    उपमा में जहाँ 'सा' 'तरह' आदि वाचक पद रहते है, वहाँ उत्प्रेक्षा में 'मानों' 'जानो' आदि शब्दों द्वारा सम्भावना पर जोर दिया जाता है। जैसे- 'आकाश मानो अंजन बरसा रहा है' (उत्प्रेक्षा) 'अंजन-सा अँधेरा' (उपमा) से अधिक जोरदार है।

    (4) अतिशयोक्ति अलंकार(Hyperbole):-

    जहाँ किसी का वर्णन इतना बढ़ा-चढ़ाकर किया जाय कि सीमा या मर्यादा का उल्लंघन हो जाय, वहाँ 'अतिशयोक्ति अलंकार' होता है।
    दूसरे शब्दों में- उपमेय को उपमान जहाँ बिलकुल ग्रस ले, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है।

    अतिशयोक्ति का अर्थ होता है, उक्ति में अतिशयता का समावेश। यहाँ उपमेय और उपमान का समान कथन न होकर सिर्फ उपमान का वर्णन होता है।

    उदाहरण-

    बाँधा था विधु को किसने, इन काली जंजीरों से,
    मणिवाले फणियों का मुख, क्यों भरा हुआ हीरों से।

    यहाँ मोतियों से भरी हुई प्रिया की माँग का कवि ने वर्णन किया है। विधु या चन्द्र-से मुख का, काली जंजीरों से केश और मणिवाले फणियों से मोती भरी माँग का बोध होता है।

    (5) दृष्टान्त अलंकार(Examplification):-

    जब दो वाक्यों में दो भिन्न बातें बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से प्रकट की जाती हैं, उसे दृष्टान्त अलंकार कहते हैं।

    इसमें एक बात कह कर दूसरी बात उसके उदाहरण के रूप में दी जाती है। पहले वाक्य में दी गयी बात की पुष्टि दूसरे वाक्य में होती हैं।
    दूसरे शब्दों में, दृष्टान्त में उपमेय, उपमान और उनके साधारण धर्म बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से परस्पर सम्बद्ध रहते हैं।

    उदाहरणार्थ-
    'एक म्यान में दो तलवारें कभी नहीं रह सकती हैं,
    किसी और पर प्रेम नारियाँ पति का क्या सह सकती हैं ?

    यहाँ एक म्यान में दो तलवार रखने और एक दिल में दो नारियों का प्यार बसाने में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव है। पूर्वार्द्ध का उपमान वाक्य उत्तरार्द्ध के उपमेय वाक्य से सर्वथा स्वतन्त्र है, फिर भी बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से दोनों वाक्य परस्पर सम्बद्ध हैं। एक के बिना दूसरे का अर्थ स्पष्ट नहीं होता।

    एक और उदाहरण लीजिये-
    तजि आसा तन प्रान की, दीपहिं मिलत पतंग। 
    दरसावत सब नरन को, परम प्रेम को ढंग।।

    (6) उपमेयोपमा अलंकार:-

    उपमेय और उपमान को परस्पर उपमान और उपमेय बनाने की प्रक्रिया को 'उपमेयोपमा' कहते है।
    इसमें दो तरह की भित्र उपमाएँ होती है।

    उदाहरणार्थ- राम के समान शम्भु सम राम है। 
    यहाँ दो उपमाएँ एक साथ आयी है, पर दोनों उपमाओं के उपमेय और उपमान क्रमशः उपमान और उपमेय में परिवर्तित हो गये है।

    (7) प्रतिवस्तूपमाा अलंकार(Typical Comparison):-

    जहाँ उपमेय और उपमान के पृथक-पृथक वाक्यों में एक ही समानधर्म दो भित्र-भित्र शब्दों द्वारा कहा जाय, वहाँ 'प्रतिवस्तूपमा अलंकार' होता है।

    उदाहरणार्थ- 

    सिंहसुता क्या कभी स्यार से प्यार करेगी ?
    क्या परनर का हाथ कुलस्त्री कभी धरेगी ?
    यहाँ दोनों वाक्यों में पूर्वार्द्ध (उपमानवाक्य) का धर्म 'प्यार करना' उत्तरार्द्ध (उपमेय-वाक्य) में 'हाथ धरना' के रूप में कथित है। वस्तुतः दोनों का अर्थ एक ही है। एक ही समानधर्म सिर्फ शब्दभेद से दो बार कहा गया है।

    प्रतिवस्तूपमा और दृष्टान्त में भेद-
    मुख्य भेद इस प्रकार है-

    (क) प्रतिवस्तूपमा में समान धर्म एक ही रहता है, जिसे दो भित्र शब्दों के प्रयोग से कहा जाता है; किन्तु दृष्टान्त में समानधर्म दो होते है, जो दो शब्दों के प्रयोग से कहे जाते है।

    (ख) प्रतिवस्तूपमा के दोनों वाक्यों में एक ही बात रहती है, जिसे दो वाक्यों द्वारा कहा जाता है। दृष्टान्त में एक वाक्य का धर्म दूसरे में एक समान नहीं होता।

    इन दो अलंकारों में इतनी समानता है कि पण्डितराज जगत्राथ ने इन्हें एक ही अलंकार का भेद माना है।

    (8) अर्थान्तरन्यास अलंकार(Corroboration) :-

    जब किसी सामान्य कथन से विशेष कथन का अथवा विशेष कथन से सामान्य कथन का समर्थन किया जाय, तो 'अर्थान्तरन्यास अलंकार' होता है।

    उदाहरणार्थ- 

    बड़े न हूजे गुनन बिनु, बिरद बड़ाई पाय। 
    कहत धतूरे सों कनक, गहनो गढ़ो न जाय। 
    यहाँ सामान्य कथन का समर्थन विशेष बात से किया गया है। पूर्वार्द्ध में सामान्य बात कही गयी है और उसका समर्थन विशेष बात कहकर किया गया है।

    (9) काव्यलिंग अलंकार(Poetical reason):-

    किसी युक्ति से समर्थित की गयी बात को 'काव्यलिंग अलंकार' कहते है। 
    यहाँ किसी बात के समर्थन में कोई-न कोई युक्ति या कारण अवश्य दिया जाता है। बिना ऐसा किये वाक्य की बातें अधूरी रह जायेंगी।

    एक उदाहरण- 

    कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय। 
    उहि खाए बौरात नर, इहि पाए बौराय। 
    धतूरा खाने से नशा होता है, पर सुवर्ण पाने से ही नशा होता है। यह एक अजीब बात है।

    यहाँ इसी बात का समर्थन किया गया है कि सुवर्ण में धतूरे से अधिक मादकता है। दोहे के उत्तरार्द्ध में इस कथन की युक्ति पुष्टि हुई है। धतूरा खाने से नशा चढ़ता है, किन्तु सुवर्ण पाने से ही मद की वृद्धि होती है, यह कारण देकर पूर्वार्द्ध की समर्थनीय बात की पुष्टि की गयी है।

    (10) उल्लेख अलंकार :-

    जहाँ एक वस्तु का वर्णन अनेक प्रकार से किया जाये, वहाँ 'उल्लेख अलंकार' होता है।

    जैसे- तू रूप है किरण में, सौन्दर्य है सुमन में, 
    तू प्राण है पवन में, विस्तार है गगन में।

    (11) विरोधाभास अलंकार(Contradiction) :-

    जहाँ विरोध न होते हुए भी विरोध का आभास दिया जाय, वहाँ 'विरोधाभास अलंकार' होता है।

    जैसे- बैन सुन्या जबतें मधुर, तबतें सुनत न बैन। 
    यहाँ 'बैन सुन्यों' और 'सुनत न बैन' में विरोध दिखाई पड़ता है। सच तो यह है कि दोनों में वास्तविक विरोध नहीं है। यह विरोध तो प्रेम की तन्मयता का सूचक है।

    (12) स्वभावोक्ति अलंकार(Natural Description):- 

    किसी वस्तु के स्वाभाविक वर्णन को ' स्वभावोक्ति अलंकार' कहते है। 
    यहाँ सादगी में चमत्कार रहता हैं।

    उदाहरण-
    चितवनि भोरे भाय की, गोरे मुख मुसकानि। 
    लगनि लटकि आली गरे, चित खटकति नित आनि।।

    नायक नायिका की सखी से कहता है कि उस नायिका की वह भोलेपन की चितवन, वह गोरे मुख की हँसी और वह लटक-लटककर सखी के गले लिपटना- ये चेष्टाएँ नित्य मेरे चित्त में खटका करती हैं। यहाँ नायिका के जिन आंगिक व्यापारों का चित्रण हुआ है, वे सभी स्वाभाविक हैं। कहीं भी अतिशयोक्ति से काम नहीं लिया गया। इसमें वस्तु, दृश्य अथवा व्यक्ति की अवस्थाओं या स्थितियों का यथार्थ अंकन हुआ है।

    (13) सन्देह(Doubt):- 

    जहाँ किसी वस्तु या व्यक्ति को देख कर संशय बना रहें, निश्चय न हो वहाँ सन्देह अलंकार होता है।

    दूसरे शब्दों में, इस अलंकार में तीन बातों का होना आवश्यक है-
    (क) विषय का अनिश्चित ज्ञान। 
    (ख) यह अनिश्चित समानता पर निर्भर हो। 
    (ग) अनिश्चय का चमत्कारपूर्ण वर्णन हो।

    उदाहरणार्थ-
    यह काया है या शेष उसी की छाया,
    क्षण भर उनकी कुछ नहीं समझ में आया। -साकेत

    दुबली-पतली उर्मिला को देख कर लक्ष्मण यह निश्चय नहीं कर सके कि यह उर्मिला की काया है या उसका शरीर। यहाँ सन्देह बना है।

    (14) मालोपमा (Chain of Similes):- 

    यदि एक वस्तु की अनेक वस्तुओं से उपमा दी जाय तो वहाँ 'मालोपमा' होती है : (मालोपमा यदेकस्योपमानं बहु दृश्यते- विश्र्वनाथ : साहित्यदर्पण) । 'मालोपमा'= माला +उपमा अर्थात जहाँ उपमा की माला ही बन जाय।

    उदाहरण-
    सिंहनी-सी काननों में, योगिनी-सी शैलों में, 
    शफरी-सी जल में, विहंगिनी-सी व्योम में,
    जाती अभी और उन्हें खोजकर लाती मैं। -मैथलीशरण गुप्त

    एक यशोधरा के लिए सिंहनी, योगिनी, शफरी तथा विहंगिनी- चार उपमान प्रस्तुत किये गये हैं। यहाँ उपमा की माला ही बन गयी है, अतः 'मालोपमा' अलंकार है।

    (15) अनन्वय (Self Comparison):- 

    एक ही वस्तु को उपमेय और उपमान- दोनों बना देना 'अनन्वय' अलंकार कहलाता है : (एकस्योपमेयोपमानत्वेऽनन्वय:- वामन: काव्यालंकारसूत्र )।

    जब कवि को उपमेय की समता के लिए कोई दूसरा उपमान नहीं मिलता तो वह उपमेय की समता के लिए उपमेय को ही उपमान बना डालता है। यथा-

    निरुपम न उपमा आन राम समानु राम, निगम कहे। -तुलसीदास 
    यहाँ 'राम समानु राम' में उपमेय-उपमान एक ही रहने के कारण अनन्वय अलंकार है।

    (16) प्रतीप (Converse):- 

    प्रसिद्ध उपमान को उपमेय बना देना 'प्रतीप' अलंकार कहलाता है। 'प्रतीप' का अर्थ है 'उलटा'।मुख के लिए प्रसिद्ध उपमान चाँद है। यदि चाँद को ही उपमेय बनाकर मुख से समता दिखायी जाय तो 'प्रतीप' अलंकार हो जाएगा। उदाहरण-

    बिदा किये बहु विनय करि, फिरे पाइ मनकाम। 
    उतरि नहाये जमुन-जल, जो शरीर सम स्याम।। -तुलसीदास

    श्यामल शरीर की उपमा यमुना के नीले जल से दी जाती रही है, किन्तु यहाँ श्रीराम के श्यामल शरीर की तरह यमुना का जल बताया गया है, इसलिए यहाँ 'प्रतीप' अलंकार है।

    (17) भ्रांतिमान् (Error):- 

    सादृश्य के कारण प्रस्तुत वस्तु मे अप्रस्तुत वस्तु के निश्र्चयात्मक ज्ञान को भ्रांतिमान् कहते हैं : (सादृश्याद् वस्त्वन्तरप्रतीति: भ्रान्तिमान्- रुय्यक : अलंकारसर्वस्व) ।

    वस्तुतः दो वस्तुओं में इतना सादृश्य रहता है कि स्वाभाविक रूप से भ्रम हो जाता है, एक वस्तु दूसरी वस्तु समझ ली जाती है। यथा-

    पायँ महावर दैन को, नाइन बैठी आय। 
    फिरि-फिरि जानि महावरी, ऐंड़ी मींड़ति जाय।। -बिहारी

    नाइन नायिका की एड़ी को अत्यंत लाली के कारण महावर की गोली समझकर बार-बार उसी को (एड़ी को) मलती जाती है। अतः यहाँ 'भ्रान्तिमान' अलंकार है।

    (18) अपहुति (Concealment):- 

    उपमेय का निषेध करके उपमान के स्थापन को 'अपहुति' अलंकार कहते हैं। 'अपहुति' का अर्थ है 'छिपाना' । यदि कहें कि 'यह मुख नहीं, चंद्र है' तो अपहुति हो जाएगी : (प्रकृतं प्रतिषिध्यान्यस्थापनं स्यादपहुति:- विश्र्वनाथ : साहित्यदर्पण) ।

    अपहुति के मुख्यतः दो भेद हैं-
    (क) शाब्दी अपहुति- जहाँ शब्दशः निषेध किया जाय। 
    (ख) आर्थी अपहुति- जहाँ छल, बहाना आदि के द्वारा निषेध किया जाय।

    उदाहरण-
    नहिं पलास के पुहुप ये, हैं ये जरत अँगार। 
    यहाँ पलाश-पुष्प का निषेध कर जलते अंगार की स्थापना की गयी है, इसलिए 'अपहुति' अलंकार है।

    (19) दीपक (Illuminater):- 

    जहाँ प्रस्तुत और अप्रस्तुत में एकधर्मसंबंध वर्णित हो वहाँ दीपक अलंकार होता है (प्रस्तुताप्रस्तुतयोदींपकंतु निगद्यते-विश्र्वनाथ : साहित्यदर्पण) ।

    जिस प्रकार दीपक जलकर घर-बाहर सर्वत्र प्रकाश फैलाता है, उसी प्रकार दीपक अलंकार निकटस्थ पदार्थों एवं दूरस्थ पदार्थों का एकधर्म-संबंध वर्णित करता है। यथा-

    सुर महिसुर हरिजन अस गाई। हमरे कुल इन्ह पर न सुराई।। -तुलसीदास 
    यहाँ महिसुर एक प्रस्तुत तथा सुर, हरिजन तथा गाय अनेक प्रस्तुतों का 'सुराई' रूप एकधर्म-संबंध वर्णित हुआ है, इसलिए 'दीपक' अलंकार है।

    (20) तुल्योगिता (Equal Pairing):- 

    जहाँ अनेक प्रस्तुतों अथवा अप्रस्तुतों का एकधर्म-संबंध वर्णित हो वहाँ 'तुल्योगिता' अलंकार होता है। साहित्यदर्पणकार विश्र्वनाथ ने लिखा है-
    पदार्थानां प्रस्तुतानाम् अन्येषां वा यदा भवेत्। 
    एकधर्माभिसम्बन्ध: स्यात्तदा तुल्ययोगिता।।

    तुल्ययोगिता में तुल्यों अथवा समानों का योग किया जाता है। इसमें प्रस्तुतों और अप्रस्तुतों दो असमानों का योग नहीं होता। यथा-

    रूप-सुधा-आसव छक्यो, आसव पियत बनै न। 
    प्याले ओठ, प्रिया-बदन, रह्मो लगाए नैन।। -अज्ञात 
    'प्याले का ओठ' तथा 'नयन का प्रिया-बदन'-दोनों प्रस्तुतों का एकधर्म 'लगाए रह्मो' से संबंध वर्णित होना 'तुल्योगिता' अलंकार है।

    (21) निदर्शना (Illustration):- 

    जहाँ वस्तुओं का पारस्परिक संबंध संभव अथवा असंभव होकर सदृशता का आधान करे, वहाँ निदर्शना अलंकार होता है। साहित्य-दर्पणकार ने लिखा है-
    संभवन वस्तुसम्बन्धोऽसम्भवन् वाऽपि कुत्रचित्। 
    यत्र बिम्बानुबिम्बत्वं बोधयेत् सा निदर्शना।।

    यथा-
    सुनु खगेस हरि भगति बिहाई। जे सुख चाहहिं आन उपाई। 
    ते सठ महासिंधु बिन तरनी। पैरि पार चाहहिं जड़ करनी।।

    महासिंधु का तैर कर पार जाना जिस प्रकार असंभव है उसी प्रकार हरि भक्ति के बिना सुख पाना भी असंभव है। यहाँ दो वाक्यों का सादृश्य दिलाया गया है, इसलिए 'निदर्शना' अलंकार है।

    (22) समासोक्ति (Speech of Brevity):- 

    जहाँ प्रस्तुत के वर्णन में अप्रस्तुत की प्रतीति हो वहाँ समासोक्ति अलंकार होता है। (प्रस्तुतादप्रस्तुतप्रतीति: समासोक्ति-विश्र्वनाथ : साहित्यदर्पण)।

    समासोक्ति का अर्थ है- संक्षेपकथन। प्रस्तुत का वर्णन हो और अप्रस्तुत की प्रतीति हो- यही संक्षेपकथन है। यह संक्षेपकथन विशेषण, लिंग तथा कार्य के साम्य के आधार पर हो सकता है। उदाहरण-

    जग के दुख दैन्य शयन पर यह रुग्णा जीवन-बाला। 
    रे कब से जाग रही वह आँसू की नीरव माला। 
    पीली पर निर्बल कोमल कृश देहलता कुम्हलाई। 
    विवसना लाज में लिपटी साँसों में शून्य समाई।। -सुमित्रानंदन पंत

    यहाँ लिंगसाम्य के कारण निष्प्रभ चाँदनी के वर्णन से बीमार बालिका की प्रतीति हो रही है, अतः यहाँ 'समासोक्ति' अलंकार है।

    (23) अप्रस्तुतप्रशंसा (Indirect Discetion):- 

    जहाँ अप्रस्तुत के वर्णन में प्रस्तुत की प्रतीति हो, वहाँ 'अप्रस्तुतप्रशंसा' अलंकार होता है (अप्रस्तुतात् प्रस्तुत-प्रतीति: अप्रस्तुतप्रशंसो)। अप्रस्तुत प्रशंसा का अर्थ है- अप्रस्तुत कथन। यथा-

    क्षमा शोभती उस भुजंग को 
    जिसके पास गरल हो। 
    उसको क्या जो दंतहीन,
    विषरहित, विनीत, सरल हो।

    यहाँ अपस्तुत सर्प के विशेष वर्णन से सामान्य अर्थ की प्रतीति होती है कि शक्तिशाली पुरुष को ही क्षमादान शोभता है। यहाँ ' अप्रस्तुतप्रशंसा' है।

    (24) विभावना (Peculiar Causation):- 

    कारण के अभाव में जहाँ कार्योत्पत्ति का वर्णन किया जाय वहाँ 'विभावना' अलंकार है (विभावना बिना हेतुं कार्योत्पत्तिर्यदुच्यते- विश्र्वनाथ : साहित्यदर्पण) ।

    'विभावना' का अर्थ है विशिष्ट कल्पना (वि=विशिष्ट, भावना=भावना)। जबतक कोई कारण नहीं हो तबतक कार्य नहीं होता। बिना कारण के कार्य होना विशिष्ट कल्पना नहीं तो और क्या है ? उदाहरण-

    बिनु पद चलै सुनै बिनु काना। 
    कर बिनु कर्म करै बिधि नाना।।
    आनन रहित सकल रसभोगी। 
    बिनु बानी बकता बड़ जोगी।।

    यहाँ पैर (कारण) के अभाव में चलना (कार्य), हाथ (कारण) के अभाव में करना (कार्य), मुख (कारण) के अभाव में रसभोग (कार्य) आदि वर्णित किये गये हैं, इसलिए 'विभावना' अलंकार है।

    (25) विशेषोक्ति (Peculiar Allegation):- 

    कारण के रहते हुए कार्य का न होना 'विशेषोक्ति' अलंकार है (सति हेतौ फलाभाव: विशेषोक्तिर्निगद्यते- विश्र्वनाथ : साहित्य-दर्पण) ।

    'विशेषोक्ति' का अर्थ है 'विशेष उक्ति'। कारण के रहने पर कार्य होता है, किंतु कारण के रहने पर भी कार्य न होने में ही विशेष उक्ति है। उदाहरण-

    सोवत जागत सपन बस, रस रिस चैन कुचैन। 
    सुरति श्याम घन की सुरति, बिसराये बिसरै न।।
    यहाँ भुलाने के साधनों (कारणों) के होने पर भी न भुला पाने (कार्य न होने) में 'विशेषोक्त' अलंकार है।

    (26) असंगति (Disconnection):- 

    जहाँ कारण कहीं और कार्य कहीं होने का वर्णन किया जाय वहाँ 'असंगति' अलंकार होता है (कार्यकारणयोर्भित्रदेशतायामसंगति:- विश्र्वनाथ : साहित्यदर्पण) ।

    'असंगति' का अर्थ होता है- नहीं संगति। जहाँ कारण होता है, कार्य वहीं होना चाहिए। चोट पाँव में लगे, तो दर्द वहीं होना चाहिए। कारण कहीं, कार्य कहीं; चोट पाँव में लगे और दर्द सर में हो, तो यह असंगति हुई। उदाहरण-

    तुमने पैरों में लगाई मेंहदी 
    मेरी आँखों में समाई मेंहदी। -अज्ञात 
    मेंहदी लगाने का काम पाँव में हुआ, किंतु उसका परिणाम आँखों में दृष्टिगत हो रहा है। इसलिए यहाँ 'असंगति' अलंकार है।

    (27) परिसंख्या (Special mention):-

    एक वस्तु की अनेकत्र संभावना होने पर भी, उसका अन्यत्र निषेध कर, एक स्थान में नियमन 'परिसंख्या' अलंकार कहलाता है (एकस्यानेकत्रप्राप्तावेकत्रनियमनं परिसंख्या)- रुय्यक : अलंकारसर्वस्व) ।

    परिसंख्या (परि + संख्या) में 'परि' वर्जनार्थ अव्यय है तथा 'संख्या' का अर्थ है 'बुद्धि' । इस प्रकार 'परिसंख्या' का अर्थ हुआ- वर्जन-बुद्धि, अर्थात किसी वस्तु का निषेध। कोई वस्तु दूसरी जगहों में भी पायी जा सकती है, उसी का निषेध कर एक स्थान में नियमन परिसंख्या है। उदाहरण-

    दंड जतिन कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज। 
    ज़ीतौ मनसिज सुनिय अस रामचंद्र के राज।।

    'दंड', 'भेद', 'जीत' का अन्य जगहों से निषेध कर 'जतिनकर', 'नर्तक नृत्य समाज' 'मनसिज' में नियमन करना परिसंख्या है।

    (3)उभयालंकार:- 

    जो अलंकार शब्द और अर्थ दोनों पर आश्रित रहकर दोनों को चमत्कृत करते है, वे 'उभयालंकार' कहलाते है।

    उदाहरण-
    'कजरारी अंखियन में कजरारी न लखाय।'
    इस अलंकार में शब्द और अर्थ दोनों है।

    उभयालंकार दो प्रकार के होते हैं-

    (1) संसृष्टि (Combinationof Figures of Speech)- 

    तिल-तंडुल-न्याय से परस्पर-निरपेक्ष अनेक अलंकारों की स्थिति 'संसृष्टि' अलंकार है (एषां तिलतंडुल न्यायेन मिश्रत्वे संसृष्टि:- रुय्यक : अलंकारसर्वस्व)। जैसे- तिल और तंडुल (चावल) मिलकर भी पृथक् दिखाई पड़ते हैं, उसी प्रकार संसृष्टि अलंकार में कई अलंकार मिले रहते हैं, किंतु उनकी पहचान में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती। संसृष्टि में कई शब्दालंकार, कई अर्थालंकार अथवा कई शब्दालंकार और अर्थालंकार एक साथ रह सकते हैं।

    दो अर्थालंकारों की संसृष्टि का उदाहरण लें-
    भूपति भवनु सुभायँ सुहावा। सुरपति सदनु न परतर पावा। 
    मनिमय रचित चारु चौबारे। जनु रतिपति निज हाथ सँवारे।।

    प्रथम दो चरणों में प्रतीप अलंकार है तथा बाद के दो चरणों में उत्प्रेक्षा अलंकार। अतः यहाँ प्रतीप और उत्प्रेक्षा की संसृष्टि है।

    (2) संकर (Fusion of Figures of Speech)- 

    नीर-क्षीर-न्याय से परस्पर मिश्रित अलंकार 'संकर' अलंकार कहलाता है। (क्षीर-नीर न्यायेन तु संकर:- रुय्यक : अलंकारसर्वस्व)। जैसे- नीर-क्षीर अर्थात पानी और दूध मिलकर एक हो जाते हैं, वैसे ही संकर अलंकार में कई अलंकार इस प्रकार मिल जाते हैं जिनका पृथक्क़रण संभव नहीं होता। उदाहरण-

    सठ सुधरहिं सत संगति पाई। पारस-परस कुधातु सुहाई। -तुलसीदास

    'पारस-परस' में अनुप्रास तथा यमक- दोनों अलंकार इस प्रकार मिले हैं कि पृथक करना संभव नहीं है, इसलिए यहाँ 'संकर' अलंकार है।

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