वह राष्ट्र जिसमें हम बड़े होते हैं, शिक्षा पाते हैं और साँस लेते हैं-हमारा अपना राष्ट्र कहलाता है और उसकी पराधीनता व्यक्ति की परतंत्रता की पहली सीढ़ी होती है। स्वतंत्र राष्ट्र की सीमाओं में जन्म लेने वाले व्यक्तियों का धर्म, जाति, भाषा या संप्रदाय कुछ भी हो, उनमें आपस में स्नेह होना स्वाभाविक है। राष्ट्र के लिए जीना और काम करना तथा उसकी स्वतंत्रता के विकास के लिए काम करने की भावना राष्ट्रीयता कहलाती है।
जब व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति से धर्म, जाति, कुल आदि के आधार पर व्यवहार करता है तो उसकी दृष्टि संकुचित हो जाती है। जब व्यक्ति स्वार्थ के फेर में पड़कर देश को परतंत्र करने का प्रयत्न करने लगता है तो राष्ट्र के प्रति उसके अंतःकरण में कोई ममत्व शेष नहीं रहता। इतिहास साक्षी है कि जयचंद के देशद्रोह के कारण पृथ्वीराज हारा। बाद में जयचंद भी बच नहीं पाया। मीर जाफर ने सिराजुद्दौला के विरोध में अंग्रेज़ों का साथ दिया और हम लगभग 175 साल गुलाम रहे। ऐसे लोगों को 'देशद्रोही' की संज्ञा दी गई है। राष्ट्रीयता की अनिवार्य शर्त है- देश की प्राथमिकता के लिए अपने 'स्व' को मिटाना। महात्मा गांधी, तिलक, सुभाषचंद्र बोस आदि के जीवन से पता चलता है कि राष्ट्रीयता की भावना के कारण उन्हें अनगिनत कष्ट उठाने पड़े। व्यक्ति को निजी अस्तित्व कायम रखने के लिए सभी पारस्परिक सीमाओं और बाधाओं को भुलाकर कार्य करना चाहिए, तभी उसकी नीतियाँ-रीतियाँ राष्ट्रीय कहलाने की भागीदार बन सकती हैं।
जब-जब भारत में फूट पड़ी, तब-तब विदेशियों ने शासन किया। चाहे जातिगत भेदभाव हो या भाषागत-तीसरा व्यक्ति उससे लाभ रू किया गया का उद्देश्य ओं का ऐसा के लिए भ्रष्टा नोरंजन, श्रम शरमाते। का विस्फोटक बकर 'हाय यम रखना र्यादा न टूटे। उठाने का अवश्य यत्न करेगा। आज देश में अनेक प्रकार के आंदोलन चल रहे हैं-कहीं भाषा का प्रश्न लेकर संघर्ष हो रहा है तो कहीं विकास के नाम पर टुकड़े किए जा रहे हैं। कहीं धर्म या क्षेत्र के नाम पर लोगों को निकाला जा रहा है। फलस्वरूप नए-नए राज्य बनते जा रहे हैं और साथ ही आदमी अपने अहं में सिमटता जा रहा है।
संप्रदाय का अर्थ है- विशेष रूप से देने योग्य। दूसरे शब्दों में, किसी को कुछ विशेष ज्ञान या जानकारी देना। सांप्रदायिकता उसी का भाववाची शब्द है, जिसको आज बुरे अर्थों में ही लिया जाता है। चूँकि सांप्रदायिकता के फलस्वरूप व्यक्ति-व्यक्ति में भेदभाव किया जाने लगा है। एक संप्रदाय या धर्म वाला दूसरे संप्रदाय या धर्म की न केवल निंदा करता है, अपितु अपने उत्कर्ष को बढ़ाने के लिए दूसरे के विरुद्ध दलबंदी करता है। वह दूसरे मतावलंबी को नेस्तनाबूत करने का प्रयत्न करता है। दूसरे शब्दों में, एक धर्म व धर्मनीति जब मदांधता का वरण कर लेती है, तब वह 'सांप्रदायिकता' कहलाने लगती है। उसमें दूसरे धर्मों व जीवनदर्शनों की मान्यताओं के प्रति असहिष्णुता तीव्रतर होती है। इसका प्रभाव इतना भयंकर होता है कि हम मानव-धर्म भूलकर मानव-कृत धर्म को सर्वोपरि मानने लगते हैं। बदला लेने की भावना को कभी भी श्रेयस्कर धर्म या पंथ नहीं कहा जा सकता। समान धर्मावलंबियों का दल बनाकर मारकाट आरंभ कर देना किसी भी धर्म का आदेश या सीख नहीं।
राष्ट्रीयता और सांप्रदायिकता मानव-दर्शन के विपरीत मार्गी दो पक्ष हैं। किसी सांप्रदायिक भावना से संचालित व्यक्ति राष्ट्रीयता का है। सकी है। की भावना महारा समर्थक नहीं हो सकता। सल्तनत काल में हिंदुओं पर जो अत्याचार किए गए, वे आज भी रोंगटे खड़े करने वाले हैं, राष्ट्रीयता का समर्थक कभी भी सांप्रदायिक नहीं हो सकता। वह भारत में रहने वाले सभी धर्मों, भाषाओं, जातियों आदि को समान दृष्टि से देखेगा। गांधी जी की प्रार्थना सभा में सभी धर्मों के अवतारों का नाम लेकर प्रार्थना की जाती थी। अकबर इलाहाबादी का भी कहना था
मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर करना।
हिंदी हैं हम वतन हैं हिन्दोस्तां हमारा ॥
आधुनिक युग में भी प्रचारतंत्र के कारण व्यक्ति सांप्रदायिक हो उठता है। कुछ ही लोग विवेकी होते हैं, जिन पर संप्रदाय प्रभाव नहीं डाल पाता। धार्मिक आधार पर बने पाकिस्तान में आज भी भयंकर मारकाट मची है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो राष्ट्रीयता से व्यक्ति का समग्र कल्याण होता है, जबकि सांप्रदायिकता से फूट और विघटनकारी तत्वों का जन्म होता है। राष्ट्रीयता में अहिंसा समाविष्ट होती है, जबकि सांप्रदायिकता में हिंसा और संकुचित दृष्टि जैसे प्राणघाती तत्व निहित होते हैं। दूसरे शब्दों में प्राणियों में सद्भावना, नवचेतना और स्फूर्ति का संचार करना ही राष्ट्रीयता है।
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